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________________ १६६ चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ - तीनोके कायोत्सर्ग, अरु थुइयों कहनी यह सब बात शंकासमाधानपूर्वक अनेक शास्त्रोंकी साक्षीमें हम उपर लिख आए है. जेकर श्रीरत्नविजय अरु श्रीधनविजयजीकों पूर्वोक्त सुविहित आचार्योका लेख प्रमाण नही होवे तो फेर धर्मकी प्रवृत्ति जो कुछ चलानी वो सब पूर्वोक्त आचार्योकी परंपरासेही चलती है तिसकों भी छोडके जिसमाफक अपनी मरजीमें आवे तिसमाफक बिचारे भोले जीवोंके आगें चलानेकों कुछभी मेनत तो नही पडती; परंतु नुकशान मात्र इतनाही होता है कि जैसें करनेसें सम्यक्त्वका नाश हो जाता है. यह बात कोइभी जैनधर्मी होवेगा सो अवश्य मंजूर रखेगा फेर जादा क्या कहना. फेरभी एक बात यह है कि जब पडिक्कमणेमें पूर्वोक्त देवतायोंका कायोत्सर्ग करणेसें इनकों पाप लगता है ? तो क्या प्रव्रज्याविधिमें और प्रतिष्ठाविधिमें इन पूर्वोक्त देवतायोका कायोत्सर्ग करनेसें इनकों पाप नही लगता होवेगा? यह कहना सत्य हैकि "आंधे चूहे थोथे धान, जैसे गुरु तैसे यजमान" इसि माफक है. यह अपक्षपाति सम्यक्दृष्टि निश्चय करेगा. मारवाड अरु मालवेके रहेने वाले कितनेक भोले श्रावकतो जैसे है कि जिनोने किसि बहुश्रुतसें यथार्थ श्रीजिनमार्गभी नही सुना है तिनोरों कुयुक्तिसें श्रीहरिभद्रसूरियादिक हजारो आचार्यो जो जैनमतमें महाज्ञानी थे तिनके सम्मत जो चार थुइ श्रुतदेवता, क्षेत्रदेवताका कायोत्सर्ग करणेरुप मत है तिसकों उत्थापके स्वकपोलकल्पित मतके जालमें फसाते है. यह काम सम्यग्दृष्टि अरु भवभीरुयोंका नही है. तथा श्रीरत्नविजयजी, श्रीधनविजयजीने श्रीजगच्चंद्रसूरिजीकों अपना आचार्यपट्ट परंपरायमें माना है. और तिनके शिष्य श्रीदेवेंद्रसूरिजीने चैत्यवंदनभाष्यमें और तिनके शिष्य श्रीधर्मघोषसूरिजीने तिस भाष्यकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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