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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ जो देवाण ॥२ इक्कोवि ॥ ३ ये तीन थुईयां गमधरकी करी हुइ है ईस वास्ते निश्चे कहनी चाहीयें और आचरणासें अन्य भी कहीयें है, सो यह है. उज्जित इत्यादि पाठ सिद्ध है. नवरं निसिहीयत्ति संसारकारणनिषेधात् नैषेधिकी मोक्ष. यह दशमोधिकारः । तथा चत्तारि इत्यादि यह भी सुगम है. नवरं परमट्ठ, परमार्थ करके परंतु कल्पना मात्रसें नही निष्ठितार्था हुआ है. ईनको यह एकादशमोधिकारः ॥ अथ आदिसें आरंभके वांदे है भावजिनादिक अथ उचित प्रवृत्तिके लीये यह पाठ पढे ॥ "वेयावच्चगराणमित्यादि" वैयावृत्त्यके करनेवाले जो गोमुख यक्ष, चक्रैश्वर्यादीकों जो शांतिके करनेवाले, सम्यग्दृष्टि समाधिके करनेवाले है इन हेतुयोंसे तिनका कायोत्सर्ग करता हूं ॥ इहां वंदणवत्तियाए इत्यादि पाठ न कहना अपितु अन्नत्थूससीएणमित्यादि पाठ कहना. तिनको अविरति होनेसें देशविरतिसेंभी नीचले गुणस्थानमें वर्त्तनसें वैयावृत्त्यकरनेवालोंकों सुना है, यह बारमा अधिकार हैं ईस पाठमेंभी चार थुईसें चैत्यवंदना करनी कही है.
(५२) तथा अणहिलपुर पाटणके फोफलीये वाडेका भांडागारमें श्रीअभयदेवसूरिकृत समाचारी है तिस का पाठ लिखते है । प्रव्रजितेन चोभयकालं प्रतिक्रमणं विधेयमतस्तद्विधिः । स च साधुश्रावकयोरेक एवेति श्रावकसमाचार्यां पृथक् नोक्तः, तत्र रात्रिकस्य यथा इरिया कुसुमिण सग्गो, जिणमुणिवंदण तहेव सज्जाओ ॥ सव्वस्सवि सक्कथउ, तिन्निय उस्सग्ग कायव्वा ॥१॥ चरणे दंसणनाणे, दुसुलोगुज्जोतय तई अईयारा ॥ पोत्तीवंदण आलोय. सुत्तं वंदणाय खामणयं ॥२॥ वंदणमुस्सग्गो इत्थ, चिंतणकि अहं तवं काहं ॥ छम्मासादेगदिणा, इहाणिजा पोरिसि नमो वा ॥३॥ मुहपोत्ती वंदण पच्चक्खाण अणुसट्ठि तह थुई तिन्नि ॥ जिणवंदण बहुवेला, पडिलेहण राइपडिक्कमणं ॥४॥ अथ दैवसिकस्य ॥ जिणमुणिवंदण
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