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________________ १४४ चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ चैत्यवंदना जानने योग्य, दिखलाने योग्य है । उक्तं च बृहद्भाष्ये ॥ इसके आगें जो महाभाष्यकी गाथा है तिसका अर्थ उपर कहा है तहांसे जान लेना ॥ जब इसतरे जैनमतके शास्त्रोमें प्रगट पाठ है तो क्या श्रीरत्नविजय श्रीधनविजयजीने यह शास्त्र नही देखे होवेगे अथवा देखे होवेगे तो क्या समजणमें नही आए होगे समजे होंगे तो क्या भाष्यकार, चूर्णिकारादिकोंकी बुद्धिसे अपनी बुद्धिकों अधिक मानके तिनके लेखका अनादर करा होगा आदर करा होगा तो क्या सत्य नही माना होगा सत्य नही माना तो क्या अन्य मतकी श्रद्धा वाले है जेकर अन्यमतकी श्रद्धा नही है तो क्या नास्तिक मतकी श्रद्धा रखते है. जेकर नास्तिक मतकी श्रद्धा नही रखते है तो क्या मारवाड मालवादि देशोंके श्रावकोंसें कोइ पूर्व जन्मका वैर भाव है ? जिस्से भाष्यकार, चूर्णिकारादि हजारो पूर्वाचार्योका मतसें विरुद्ध जो तीन थुइका कुपंथ चलाके तिनकी श्रद्धाकुं फिरायके उनोका मनुष्यभव बिगाडनेकी इच्छा रखते है? अहो भव्यजीवो हम तुमसें सत्य कहते हैं कि जेकर तुम भाष्यकार, चूर्णिणकारादि हजारों पूर्वाचार्योंके माने हूए चार थुइके मतकों उथापोगे तो निश्चयसें दीर्घ संसारी और अशुभगति गामी होवेंगे. जेकर श्रीरत्नविजयजीके चलाए तीन थुइके पंथकों न मानोगे और पूर्वाचार्योके मतकों श्रद्धोगे, तिनके कहे मुजब चलोगे तो निश्चेही तुमारा कल्याण होवेगा इसमें कुछभी क्वचित् मात्र संशय जानना नहीं. किंबहुना ।। (४७) तथा धर्मसंग्रह ग्रंथमें देवसि पडिक्कमणेकी विधिका ऐसा पाठ लिखा है सो यहां लिखते है || पूर्वाचार्य प्रणीता: गाथः ॥ पंचविहायार विसुद्धि, हेउमिह साहु सावगो वावि ॥ पडिक्कमणं सह गुरुणा. गुरुविरहे कुणइ इक्को वि ॥१॥ वंदित्तु चेइयाई, दाउंचउराइ ए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004920
Book TitleChaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherNareshbhai Navsariwala Mumbai
Publication Year2007
Total Pages386
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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