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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१
थुइ कहनी इन दोनो बातोमें किसीभी जैनधर्मीकों शंका रह सकती है. के सम्यग्दृष्टि देवताका कायोत्सर्ग जैनमतके शास्त्रमें करणा कह्या है के नही कह्या है ? इन पूर्वोक्त पाठोसें निश्चं सिद्ध होता है के साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकाने सम्यग्दृष्टि देवताका कायोत्सर्ग अवश्यमेव करणा.
अब श्रीरत्नविजयजी जो भोले लोकोंको कहते फिरते है के, इन पाठोंसें हमारा मत सिद्ध होता है, ऐसा कपट छल करकें भोले जीवांकू कुपथमें गेरना यह क्या सम्यक्दृष्टि, संयमी, सत्यवादी, भवभीरु, धूर्तताइसें रहितोंके लक्षण है ? बनिये बिचारे कुछ पढे तो नही है, इस वास्ते इनकू क्या खबर है के यह हमारे साथ धूर्तताइ करता है वा नही करता है ? यह बात कुछ बनिये समजते नही.
परंतु श्रीरत्नविजयजीकू साधु नाम धरायकें ऐसे ऐसे छल कपटके काम करणे उचित नही है. हमारी तो यह परम मित्रतासें शिक्षा है, मानना न मानना तो श्रीरत्नविजयजीके आधीन है.
तथा श्रीरत्नविजयजीकू इस संघाचारवृत्तिका तात्पर्यार्थभी मालुम नही हुआ होगा नही तो अपने मतकी हानिकारक चिट्ठि इस पुस्तकमें काहेकों लगवाता?
(४१) तथा आवश्यककी अर्थ दीपिकाका पाठ लिखते है ॥ तथा सम्यग्दृष्टयोऽर्हत्पाक्षिका देवा देव्यश्चेत्येक शेषाद्देवा धरणींद्रांबिकायक्षादयो ददतु प्रयच्छंतु समाधि चित्तस्वास्थ्यं समाधिर्हि मूलं सर्वधर्माणां स्कंध इव शाखानां शाखा वा पुष्पं वा फलस्य, बीजं वांकुरस्य चित्तस्वास्थ्यं विना विशिष्टानुष्ठानस्यापि कष्टानुप्रायत्वात् समाधिव्याधिभिर्विधुर्यता तन्निरोधश्च तद्धेतुकोपसर्गनिवारणेन स्यादिति तत्प्रार्थनाबोधि परलोके जिनधर्मप्राप्तिः यतः सावयघरंमिवरहुज्झ चेडओ नाण दंसणसमेओ ॥ मिच्छत्तमोहि अमई, माराया चक्कवट्टीवि
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