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१६ षाडशकप्रकरणं
शास्त्र पाठों से मूलांश एवं टीकांश को विशद भी किया हैं । जैसे - १/९ मूल एवं टीका में बताया कि गुरुदोष | (प्रवचनोपघातादि) में तत्पर परंतु सूक्ष्म दोषों (समितिभंगादि) से बचनेवाले एवं साधु और श्रावक आदि की निन्दा करने वाले का अनुष्ठान 'अपरिशुद्धानुष्ठान' कहलाता है । कल्याणकंदली में इसके ऊपर अच्छा प्रकाश डाला है । उसमें बताया है कि शासन अपभ्राजना से घोर कर्मबंध होता है। उसके लिए अष्टक एवं पञ्चाशक के पाठ दीए हैं और दुसरी भी अच्छी चर्चा की हैं । शासन अपभ्राजना के अच्छे उदाहरण रितिदायिनी व्याख्या' में दीए हैं ।
साधु निन्दा की भयंकरता बताने हेतु पुष्पमाला, निशीथभाष्य, निशीथचूर्णि, आचारांगटीका, उपदेशमाला आदि के पाठ देकर के बताया हैं कि साधुनिन्दा करने वाले सम्यक्त्व से भी भ्रष्ट होते हैं एवं उसकी पुष्टि हेतु कलिकाल सर्वज्ञ की साक्षी दी हैं । इसके बारे में और भी चर्चा की हैं । यह तो एक नमूना बताया है । बाकी इस ग्रंथ में इस प्रकार से तात्त्विक विशदीकरण बहुत हैं। जिससे मूल ग्रन्थ एवं टीका के रहस्य उद्घाटित होते हैं और मूलकार, टीकाकार और कल्याणकन्दलीकार के प्रति बहुमान जागृत होता है ।
प्रथम षोडशक की कल्याणकन्दली टीका में बाल, मध्यम, बुध का विशद विवेचन किया है । साथ में तीनों की उचित दशना पर भी अच्छा प्रकाश डाला हैं ।।
द्वितीय षोडशक में उनके योग्य देशनापद्धति का अनूठे ढंग से विवेचन किया है । इस प्रकार बाल-मध्यम-बुध का स्वरूप, उनके योग्य देशना एवं देशनापद्धति को कल्याणकन्दली में अतिसुस्पष्ट किया है, जिसका ज्ञान वर्तमान के उपदेशकों को बहुत ही जरूरी हैं। इसलिए सभी को मैं विनंति करता हूँ कि पूरे ग्रंथ को पढे तो अच्छा ही हैं । नहीं तो कम से कम पहले, दूसरे षोडशक का मूल-टीका-कल्याणकंदली-रतिदायिनी साद्यंत पढना जरूरी हैं। जिससे उपदेशक शास्त्रसापक्ष हो कर श्रोता के अनुसार देशना दे सके । अगर उपदेशक विपरीत रूप से देशना दे तो वह पापदशना है। प्रथम षोडशक की १४ वीं गाथा में परस्थान देशना को पापदेशना बताई हैं। इसके बारे में विवेचन, ग्रंथ से ही जान लेना चाहिए । विस्तार के भय से यहाँ पर विशेष विवेचन नहीं कर रहा हूँ ।
उसका सार यह है कि उपदेशक को हमेशा मोक्ष के आशय से ही उपदेश देना चाहिए । श्रोता भी किस प्रकार मोक्ष मार्ग पर आवे इसका ख्याल रखना चाहिए, परंतु उपदेश देते समय श्रोता को समझ कर, वह किस कक्षा का है ? यह जान कर उसके अनुरूप ही देशना देनी चाहिए, जिससे वह स्वयोग्यता के अनुसार मोक्षमार्ग में आगे बढ़ सके । दखिए इस विषयक सूरिपुरंदर के वचन -
बालादिभावमेवं सम्यग्विज्ञाय देहिनां गुरुणा ।
सद्धर्मदेशनाऽपि हि कर्तव्या तदनुसारेण ॥१/१३|| कल्याणकन्दली में आचारांग सूत्र आदि के भी पाठ देकर के इस वस्तु पर अच्छा प्रकाश डाला हैं ।
यह ख्याल रखना है कि षोडशक में देशना की जो बात बताई है वह बाल, मध्यम, बुध इन व्यक्तियों के आश्रित हैं अर्थात व्यक्तिगत देशना हैं । जहाँ समुदाय हो वहाँ गीतार्थ को समुदाय की अपेक्षा से यथोचित देशना देनी चाहिए । जिससे यथासंभव सभी को लाभ हो सके । कैसी देशना अमोघ बनती हैं ? इस विषय के विशदबोध के लिए दूसरे षोडशक के अन्तिम श्लोक का विवेचन विशेषतः मननीय है ।
के संशोधन का लाभ प.प. दादागरुदेव मेवाडदेशोदधारक आ.म. श्री जितेन्द्रसरिश्वरजी म.सा. की पावन निश्रा में वि.सं. २०५१ के अनुपमजिनबिम्बालकृत सेवाडीग्राम के चातुर्मास में प्राप्त हुआ एवं प्रस्तुत वक्तव्य प.पू. प्रगुरुदेव युवकजागृतिप्रेरक आ.म. श्री गुणरत्नसूरिश्वरजी म.सा. की पावन निश्रा में लिखा गया । उन्होंने ही अपना अमूल्य समय देकर षोडशक ६/१५ के विषय में विशेष विचारणा कर के हमें अनुग्रहीत कीए हैं ।
विद्वान मुनिराज श्री उदयवल्लभविजयजी की प्रस्तावना का अवलोकन किया । मुनिश्री ने १६ षोडशकों को भी संक्षेप में स्पष्ट की है । संशोधन एवं वक्तव्य में अनाभोगादि से शास्त्रविरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो मिच्छामि दुक्कडं ।
श्री जितेन्द्रसूरिश्वरजाप.
प्रकटप्रभावी श्रीजीरावला तीर्थ समीपस्थ निम्बज ग्राम. वि.सं. २०५२. महा बद १०
- मुनि यशोरत्नविजय.
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