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षोडशकप्रकरणं १॥
सूरिपुरंदर सुप्रसिद्ध हैं । उसका कारण उन्होंने ज्ञानसरिता तो क्या ज्ञानसागर ही खड़ा कर दिया है । जब उनका । स्मरण होता है एवं उनके साहित्य का विचार करता हूँ तो मैं गद्गद हो जाता हूँ ।
हम पामरों पर कितना उपकार किया सूरिपुरंदर ने ! उनका एक एक ग्रंथ बहुमूल्य खजाना हैं । छोटा सा बालक समुद्र का क्या नाप बतावे ? फिर भी मैं इतना ही कहता हूं कि उनका एकावतारीपना ही उनकी महानता एवं प्रामाणिकता का गवाह है । उनका विशेष परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ के पठन से हो सकेगा । यह ग्रन्थ अनेक विशिष्टता से भरा हुआ है।
टीकाकार :- महामहोपाध्याय श्रीयशोविजयजी म. ने षोडशक पर टीका लिखी हैं। उनका परिचय मेरे ‘भाषा रहस्यप्रकरण' के संशोधकीय वक्तव्य' से कर सकते हैं । नजदीक के अप्रतिम विद्वान हैं, जिनसे विद्वद्वर्ग सुपरिचित है ।
कल्याणकन्दलीकार :- शासनमंडन मुनिपुंगवश्री यशोविजयजी म. का विशेष परिचय मैंने भाषारहस्यप्रकरण के 'संशोधकीय वक्तव्य' में दिया ही है फिर भी जैसे नदी में बाढ आती है तब नदी के बहार जाते पानी को कोई रोक नहीं सकता वैसे ही उनकी वर्तमान में बढती हुई अतुल प्रतिभा से प्रभावित होने से में अपनी लेखनी को रोक नहीं सकता हूँ ।
जब इनके बारे में, इनके ग्रंथो के बारे में सोचता हूँ, तब आँखे भर जाती हैं । इतने छोटे पर्याय में इतना विराट सृजन । वह भी पूर्वमहर्षियों के ग्रन्थ पर ! वर्तमान में अत्यन्त मोहक एवं स्वअहंकारपोषक बाह्यप्रभावना, जो तुरंत फलदायी (?) लगती है, उसका छोड कर ऐसे कार्य में डूबकी लगानी आसान नहीं है । शासनराग सीने में भरा हुआ हो तो ही यह संभव है । ऐसे संयमी ही शासन की शान हैं और वे ही महामूल्य रत्नों के जौहरी कहलाने लायक हैं ।
इनके ग्रंथो के अवलोकन से पता चलता है कि ये स्वपरदर्शन के एक तलस्पर्शी विद्वान हैं। केवल न्याय, व्याकरण साहित्य आदि का ही तलरूपी ज्ञान नहीं अपितु आगमसिद्धान्त का भी ऐसा ही तलस्पर्शी ज्ञान दिखाई देता है । उनके ग्रन्थों को देख कर वास्तव में ऐसा ही लगता हैं कि ये वास्तव में इस काल के महामहोपाध्यायजी ही हैं । यह अतिशयोक्ति नहीं है, क्योंकि इनके ग्रन्थों के अवलोकन के बाद तटस्थ वाचक को ऐसा ही प्रतीत होगा । ऐसे तो मेरा इनके प्रत्यक्ष परिचय नहीं है फिर भी उनके प्रत्यक्ष परिचयवाले अनेक संयमियों के इसी प्रकार के उद्गार हैं ।
मैं ज्यादा तो क्या लिखू... कल्याणकन्दली को पढते किसी भी अपरिचित वाचक को तो ऐसा ही प्रतीत होगा कि यह टीका किसी प्राचीन महर्षि की कृति हैं । इस कृति के लेखक का नाम पढ़ कर ही पता चलेगा की यह कृति तो नूतन है । बस इससे ही इनके ज्ञान की गरिमा का ख्याल आ जाएगा । अतुल ज्ञान के साथ वर्धमान आयंबिल
ओली आदि का तप इनकी मुख्य विशेषता हैं । इनकी ग्रन्थसृजन की गति आश्चर्यकारी है । इतना विशालकाय सृजन इतने अल्प समय में इनकी गति के साक्षी हैं । इस अवसर्पिणी काल में इतना तीव्र क्षयोपशम इनकी पूर्व भव की विशिष्ट ज्ञानोपासना का ही फल प्रतीत होता है ।
ऐसे ही उत्तम ग्रंथरत्नों की रचना में ये लग रहेंगे ऐसी मैं कामना करता हूँ, जिससे शासन को बहुत ही लाभ होगा । वर्तमान में पुरुषार्थ आदि के अभाव के कारण केवल संस्कृत-प्राकृत ग्रंथों को पढने की क्षमता में बहुत ही न्यूनता दिखाई देती है, जिससे जिज्ञासु वाचक इनके साहित्य से वश्चित न रह जाए इसलिए इनके ग्रन्थों में हिन्दी या गुजराती विवचन भी शामिल हैं । श्रावक वर्ग भी लाभ ले सकते हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में भी विशेषार्थयुक्त रतिदायिनी गुजराती व्याख्या दी गई है ।
इन्होंने आत्मीयता के कारण अत्यंत अनुनयपूर्वक मेरे पू. गुरुदेव विद्वद्वर्य मुनिपुङ्गव पुण्यरत्न वि.म. एवं मुझे पूरे षोडशक के संशोधन हेतु पत्र लिखा था । परंतु विहारादि के कारण समयाभाव होने से हम दोनों स्वीकृति दे नहीं पाए। इसमें हम हमारा कमभाग्य ही समझते हैं । ऐसे उत्तम लाभ से वंचित रहना पडा । केवल प्रथम एवं द्वितीय षोडशक का संपूर्णरूप से संशोधन का लाभ प्राप्त हो सका ।
कल्याणकन्दली/रतिदायिनी :- संस्कृत टीका को देखते ही लगता है कि इसमें शास्त्र पाठों की नदी बह रही है। कहाँ-कहाँ से शास्त्रपाठ लाए, वाचक वर्ग पढने से आश्चर्य चकित हो जाएंगे । शास्त्र पाठों से कथित वस्तु विश्वसनीय बनती हैं। जीव ने द्रव्यालङ्ग अनन्त बार ग्रहण कीए हैं, ऐसे महोपाध्यायजी के टीकांश (१/६) के समर्थन में प्रज्ञापना, व्याख्याप्रज्ञप्ति, जीवाजीबाभिगम, पुष्पमाला, धर्मबिन्दु, पश्चाशक, उपदेशपद, पञ्चवस्तु, उपदेशमाला आदि ग्रन्था के पाठ दिए हैं । इसी प्रकार २/१० में पञ्चाशकादि के पाठों से गुरुपारतन्त्र्य आदि पर अच्छा प्रकाश डाला है ।
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