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________________ १४ षोडशकप्रकरणं संशोधकीय वक्तव्य समतिपवित्तिसव्वा आणाबज्झत्ति भवफला चेव । तित्थगरुडेसेण वि ण तत्तओ सा तद्देसा ।। पंचाशक ८/१३।। ग्रन्थकार :- स्वबुद्धि से कल्पित ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना, शासनप्रभावना आदि सभी प्रवृत्ति भगवान् की आज्ञा के विरुद्ध होने से संसारवर्धक ही है । तारक तीर्थकर के उद्देश्य से भी कोई प्रवृत्ति अपनी बुद्धि के अनुसार की जाए तो वह भी संसारवर्धक ही होती है, क्योंकि तत्त्वतः वह तीर्थंकर के उद्देश्यवाली प्रवृत्ति ही नहीं कहलाती है। | इसका तात्पर्य यह है कि शास्त्रसापेक्ष रह कर स्वअधिकार के अनुसार जो प्रवृत्ति है वह ही वास्तव में रत्नत्रयी की आराधना है । सूरिपुरंदर श्रीहरिभद्रसूरिजी म. का उपर्युक्त कथन बहुत ही मार्मिक है। यह उपदेश बुधविषयक है, क्योंकि सूरिपुरंदर ने बुध को आज्ञावचन की प्रधानता का उपदेश देना ऐसा बताया है। भगवान् का वचन अगर ह्रदय में है तो स्वयं भगवान् ही ह्रदय में है । देखिए - अस्मिन् हृदयस्थे सति हृदयस्थस्तत्त्वतो मुनीन्द्र इति ।। हृदयस्थिते च तस्मिनियमात्सर्वार्थसंसिद्धिः ॥२/१४।। जब कि मध्यम को आचारसूक्ष्मता, गुरुकुलवास, गुरुपारतन्त्र्य आदि का उपदेश देना है, क्योंकि बुध की अपेक्षा मध्यम का क्षयोपशम न्यून होता है । इसलिए आज्ञा की सूक्ष्मता को वह आत्मसात् नहीं कर पाएगा (देखिए दूसरा षोडशक)। जब कि आचारसूक्ष्मता एवं गुरुपारतन्त्र्य आदि के उपदेश से योग्यतानुसार मध्यम जीव भी आज्ञा की सूक्ष्मता को ग्रहण करने लायक बन पाएगा । अर्थात् - कालक्रम से बुध हो पाएगा । सूरिपुरंदर के उपर्युक्त पंचाशक के पाठ का संवादक पाठ दर्शनशुद्धि प्रकरण में मिलता है । मोत्तूणं भावत्थयं जो दब्वत्थाए पवट्टए मूढो । सो साहवत्तत्थो गोयम अजओ अविरओ य ॥ दर्शनशुद्धिप्र. मार्गतत्त्व . १५ ।। __ जो साधु भावस्तव (संयम) का विचार किए बिना द्रव्यस्तव में प्रवृत्ति करता है वह अविरत (गृहस्थ) कहलाता है । इस ग्रंथ में इस बात को महनिशीथ का पाठ दे कर समर्थन किया गया है एवं गाथा १० में बताया है कि जिनबिम्ब जिनचैत्य, प्रतिष्ठा, बरघोडा, अट्ठाईमहोत्सव, संगीत, नृत्य आदि द्रव्यस्तब कहलाता है । इसलिए साधु को उत्सर्ग से इनमें प्रवृत्ति करना निषिद्ध है । ऐसे साधु को 'बाल' कहा जाता है । अपवाद से प्रवृत्ति संविग्न गीतार्थाधीन है । देखिए इसी ग्रंथ में इय चइऊणारंभं परववएसा कुणइ बालो ।।१६।। इसी प्रकरण में यह भी बताया है कि तीर्थंकर के उद्देश्य से भी ऐसी सावद्य प्रवृत्ति में पड़ कर साधु को मोक्षदायक संयम को शिथिल नहीं करना चाहिए । देखिए - तित्थयरुहेसेण वि सिढिलिज न संजमं सुगइमूलं ||१७|| इस बात को आगे इसी प्रकरण में और स्पष्ट की है। उसे वहीं से देखे । विस्तार के भय से इतना ही लिखा है । कल्याणकंदलीकार ने चैत्यनिर्माण आदि में प्रवृत्ति करनेवाले साधु को 'बाल' बताया है (पृ.६) उसकी इस पाठ से पुष्टि होती है । वर्तमान के विषम युग में सूरिपुरंदर के ग्रन्थों का पठन-पाठन बहुत ही आवश्यक है, क्योंकि उनके ग्रन्थ ऐसे मार्मिक वचनों से भरे हुए हैं । उपर्युक्त कथन तो एक नमूना है । उनके योगदृष्टिसमुच्चय ग्रन्थ में भी ऐसी मार्मिक बात दृष्टिगोचर होती हैं । देखिए : गुरुभक्तिप्रभावन तीर्थकृद्दर्शनं मतम् । समापत्त्यादिभेदेन निर्वाणैकनिबन्धनम् ।। (यो.स.६४) गुरुभक्ति के प्रभाव से तीर्थंकर के दर्शन होते हैं । यही बात दूसरे षोडशक में भी है । ऐसे ही मार्मिक वचन उनके ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। स्थानाभावादि के कारण २ ही नमूने बताए हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education Intemational
SR No.004833
Book TitleShokshaka Prakarana Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorYashovijay of Jayaghoshsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2000
Total Pages240
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & Religion
File Size22 MB
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