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फ़िर फ़िर अविद्या का प्राबल्य होता है; वैमनस्य, अशांति, युद्ध, समाज की दुर्व्यवस्था बढ़ती है; सत् पुरुषों, महापुरुषों का कर्तव्य है कि प्राचीनों के सदुपदेशों का पुन: पुन: जीर्णोद्धार और प्रचार करके और सब की एकवाक्यता, समरसता दिखाके मानवसमाज में सौमनस्य, शांति, तुष्टि, पुष्टि का प्रचार करें, जैसा महावीर और बुद्ध ने किया।
जैन शास्त्र के प्रसिद्ध दो श्लोक - एक हिन्दी का और एक संस्कृत का मैंने बहुत वर्ष हुए श्री शीतलप्रसाद जी ब्रह्मचारी(जैन)से सुने; मुझे बहुत प्रिय लगे।
कला बहत्तर पुरुष की, वा में दो सरदार,
एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार । आम्रवो बन्धहेतु: स्याद् मोक्षहेतुश्च संवरः,
इतीयम् आर्हती मुष्टिः सर्वमन्यत् प्रपञ्चनम् । वैशेषिक सूत्र है,
यतोऽभ्युदय-नि:श्रेयस-सिद्धिः स धर्मः । तथा वेदान्त का प्रसिद्ध श्लोक है, __ बन्धाय विषयाऽऽसक्तं, मुक्त्यै निर्विषयं मनः,
एतज् ज्ञानं च मोक्षश्च, सर्वोऽन्यो ग्रन्थविस्तरः । समय समय के सम्प्रदायाचार्य यदि ऐसे विरोध-परिहार पर संवाद पर अधिक ध्यान दें और दिलावें तो पृथ्वी पर स्वर्ग हो जाय । पर प्राय: स्वयं महा “आम्रव" -ग्रस्त होने के कारण यति-भिक्षु-संन्यासी का रूप रखते हुए भी भेद-बुद्धि, कलह, राग-द्वेष ही मनुष्यों में बढ़ाते हैं । यहाँ तक कि स्वयं महावीर और बुद्ध के जीवनकाल में ही, (यथा ईसा और मुहम्मद के जीवनकाल में ही) प्रत्येक के अनुयायियों में भेद हो गये; और
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