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के साधन के लिये, भातर में तो महर्षियों ने महावीर स्वामीने बुद्ध देवने मुख्य मुख्य शब्द भी प्राय: वही प्रयोग किये हैं।
“महावीर वाणी" के अन्तिम 'विवाद सू' में, कई वादों की चर्चा कर दी है। और उपसंहार बहुत अच्छे शब्दों में कर दिया है -
एवमेयाणि जम्पन्ता, बाला पंडितमाणिणो,
निययानिययं सन्तं, अयाणन्ता अबुद्धिया। अर्थात्,
एवमेतानि हि जल्पन्ति, बाला: पण्डितमानिन:,
नियताऽनियतं सन्तम् अजानन्तो ह्युबुद्धयः । यही आशय उपनिषत् के वाक्य का है;
अविद्यायामन्तरे वर्तमाना:, स्वयंधीरा: पण्डितम्मन्यमाना:, दन्द्रम्यमाणा: परियन्ति मूढाः,
अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः । आज कल के पांडित्य में शब्द बहुत अर्थ थोड़ा; विवाद बहुत सम्बाद नहीं; अहमहमिका विद्वत्ता प्रदर्शनेच्छा बहुत सज्झानेच्छा नहीं; द्वेष द्रोह बहुत, स्नेह प्रीति नहीं; असार-पलाल बहुत, सार-धान्य नहीं; अविद्या-दुर्विधा बहुत सद्विधा नहीं; शास्त्र का अर्थ, मल्लयुद्ध । प्राचीन महापुरुषों के वाक्यों में इसके विरुद्ध सार सज्ज्ञान सद्भाव बहुत, असार और असत् नहीं । क्या किया जाय, मनुष्य की प्रकृति ही में अविद्या भी है और विद्या भी, दुःख भोगने पर ही वैराग्य और सद्बुद्धि का उदय होता है।
. सा बुद्धिर्यदि पूर्वं स्यात् कः पतेदेवं बन्धने ?
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