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१.उदेशक १.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र.
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तदुभवारंभा, अनारंभा । गोवमा ! आवारंभा वि जायो अगारंभा से केणद्वेषं भंते । एवं बुवइ ? गोयमा ! अपिर पहुच." एवं नील—–कापोतलेश्यादण्डकावपीति तथा तेजोलेश्यादेर्जीवरारोर्दण्डकाः यथौधिका जीवास्तथा वाच्याः. नवरम् — तेषु सिद्धा न वाच्याः, सिद्धानामलेश्यत्वात्. ते च एवम्:- "तेउलेस्सा णं भंते ! जीवा किं आयारंभा ? ४. गोयमा ! अत्थेगतिया आयारंभा वि जावो अपारंमा, अत्येगइया नो आयारंभा, जान-जणारंभा से केगणं मंते । एवं बुध १ गोयमा दुबिहा तेउलेस्सा पचता, तं जहा संजयाय, अजया थ." इत्यादि.
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२८. वे आत्मारंभकपणादिनं न गैरविकादि चोवीस दंडक द्वारा निरूपण करतो हे [रया में इत्यादि] स्पष्ट छे. विशेष: विद्यादिमारं 'मणुस्स' ] मनुष्य इत्यादि पदमां आ अर्थ छे:-मनुष्योने विषे पूर्वे संयंत, असंयत, प्रमत्त अने अप्रमत्त भेदो कथा छे. तेथी तेओ ( मनुष्यो ) जे प्रकारे जीवो छे, ते प्रकारे कहेवा. परंतु तेओ ( मनुष्यो) संसारसमापन्न - संसारी, अने असंसारसमापन्न - मुक्त, ए प्रमाणे वे भेदवाळा न कहेवा. कारण के संयत, असंयत, प्रमत्त अने अप्रमत्त मनुष्यो संसारने विषे ज वर्तवावाळा छे. ए माटे ज कहे छे केः - [ 'सिद्धविरहिए' इत्यादि ] 'सिद्ध 'विरहित' बगेरे. जेवी रीते नैरधिको चिन्तव्या तेवी रीते व्यंतरादि पण चिन्तपवा. कारण के असंयतता बन्नेने समान छे. आत्मारंभकत्यादि धर्मोव जीवो निरूप्या, बळी ते (जीशे) लेश्यासहित अने लेश्यारहित होष छे. माटे लेक्यावाळा जीवोने आत्मारंभादि धर्मों द्वारा ज निरूपतां रुहे राजेश्वमारंभ छे के [ 'सलेस्सा जहा ओहिय' ति] कृष्णादि द्रव्य पदार्थमा समीपपणाची जीवमां उत्पन्न भएला परिणाम विशेषने तेश्यों कहे छे छे के
बगेरे द्रव्यना संबंधी स्फटिकमा जेम परिणाम भाय हे, तेम आत्माने विषे यता परिणामविशेषमां लेश्या शब्दनो प्रयोग थाय छे." सलेश्या - लेश्यावाळा- जीवो. [ 'जहा ओहिय' त्ति ] जेवी रीते सामान्ये जेम 'हे भगवन्! शुं जीवो आत्मारंभी छे, परारंभी छे ?' इत्यादि दंडकवडे नैरयिक वगेरे विशेषणो रहित-जीवो भण्या छे, तेम लेश्यावाळा जीवो पण ( विशेषणो रहित - सामान्ये ) कहेवा. लेश्यावाळा जीवोने विषे असंसारसमापन्नत्व-मुक्तत्व-सिद्धत्व नो असंभव होवाथी, 'संसारसमापन्न' 'असंसारसमापन्न' इत्यादि विशेषणो रहित शेष 'संवत' बगेरे विशेषणो, तेभोनो योग होवाथी जोडयां तेने विषे आ प्रमाणे पाठक्रम कहेयो:-"हे भगवन्! लेश्यावाळा जीवो आत्मारंभी छे" इत्यादि पूर्वे क तेम सहेवं विशेष ए ज के जीवने स्थाने 'देवाचाळा' ए प्रमाणे कहे. ए रीते आ एक दंडक असे कृष्णादि (छ) लेश्याना भेदधी बीना छ दंडक, आवी रीते बघा मेळवता सात दंडक थाय छे. [ 'कण्हलेसस्स' इत्यादि ] जेवी रीते सामान्य जीवोनो दंडक को, तेवी रीते कृष्णलेश्यावाळा, नीललेश्यावाळा अने कापोतलेश्यावाळा जीव समूहनो दंडक कहेवो. परंतु प्रमत्त अने अप्रमत्त विशेषणो वर्जित कहेवो. अप्रशस्त भाववाळी कृष्णादिकृष्ण, नील अने कापोत- लेश्यामां संयतपणुं नयी "पूर्वे साधुपमाने प्राप्त भएको जीव कोइ पण लेश्यामां होय छे" ए प्रमांगे ने कं छे, ते द्रव्यलेझ्याने आश्री मानवुं. तेथी ( भावरूप) कृष्णलेश्यादिमां प्रमत्तादि विशेषणोनो अभाव कह्यो. तेने विषे सूत्रोच्चारण आ प्रमाणे छे:- “हे भगवन् ! शुं कृष्णलेश्वावाला जीव आत्मारंभी छे, परारंभी छे, उभयना आरंभी हे के अनारंगी छे हे गौतम! आत्मारंभी पण छे, यावत्-अनारंभी नथी. हे भगवन् ! ते शा कारणथी एम कहो छो हे गौतम! अविरतिने आधी." आ प्रमाणे, नीलेश्या अने कापोतलेयानो पण दंडक हेचो. तथा तेजोलेश्यादि त्रण लेश्यानाला जीवराशिना त्रण दंडको जेवी रीते सामान्य जीयोने कक्षा तेबी रीते कईबा विशेष एछे के तेजोलेश्यादि दंडकोमां सामान्य जीवनुं सरखापणुं लेतां सिद्धो न कहेवा. कारण के सिद्धो लेश्यारहित होय छे. तेओ आ प्रमाणे भणवाः- “हे भगवन् ! शुं तेजोलेश्याचाळा जीवो आरमारंभी है, परारंभी है, उमवारंभी छे के अनारंभी हे हे गौतम केठाक आत्मारंभी एप के बावत् अनारंभी नमी. अने केटलाफ आत्मारंभी नभी, यावत् अनारंभी होय छे. हे भगवन्! ते शा कारणश्री एम कहो छो हे गौतम! तेजोलेश्या वे प्रकारनी तेजोलेश्या. कही छे, ते आ प्रमाणे छे:- संयत अने असंयत”. इत्यादि.
५४. प्र० - इहभविए भंते ! णाणे, परभविए नाणे, तदुभयभविए नाणे ?
ज्ञानादि.
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५४. उ०- गोयमा ! इहमविए वि नाणे परमपिएच नाणे, तदुभयभवि वि नाणे. दंसणं पि एवमेव.
५५. प्र० - इहभविए भंते ! चरिते, परभविए चरिते, तदुभयभविए चरिते ?
५४. प्र० -- हे भगवन् ! ज्ञान ऐहभविक छे, पारभविक छे के तदुभयभविक छे !
१. प्र०छा:- तेजोलेश्या भगवन् ! जीवाः किमात्मारम्भाः ? ४. गौतम ! सन्त्येकका आत्मारम्भा अपि यावद्-नो अनारम्भाः सन्त्येकका नो आत्मारम्भाः यावत्-अनारम्भाः तत् केनार्थेन भगवन् । एवमुच्यते ? गौतम! द्विविधा तेजोलेश्या प्रज्ञप्ता, तद्यथाः संयता च असंयता चः - अनु०
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५४. उ० - हे गौतम! ज्ञान ऐहभविक पण छे, पारभविक पण छे अने तदुभयभविक पण छे. दर्शन पण एज प्रमाणे जाणवुं. ५५. प्र० - हे भगवन् ! चारित्र ऐहभविक छे, पारभविक छे के तदुभयभविक छे !
१. 'लेश्या' शब्दनो अर्थ आ छे:- 'लिश् चोंटवु' धातु उपरथी 'लेश्या' शब्द बने छे. लेश्या=जे वडे कर्म साथे आत्मा चोंटे ते, अर्थात् कोइ पण संयोगथी आत्मानो एक प्रकारनो शुभ के अशुभ परिणाम-चोथा कर्मग्रंथनी पेली गाथानी टीका ( भा० १-९२ ) २. आ अर्थने जणावनारी गाथाश्रीमदाखामिरचित आवश्यकनिकिम उपोद्घातमि
1. मूलच्छायाः - ऐहभविकं भगवन् । ज्ञानम्, पारभविकं ज्ञानम्, तदुभयभविकं ज्ञानम् ? गौतम ! ऐहभविकमपि ज्ञानम्, पारभविकमपि ज्ञानम्, तदुभयभकिमपि ज्ञानम् दर्शनमपि एवमेव ऐवि भगवन् ! चारित्रम्, पारमनिकं चारित्रम् तभवभवि चारित्र
अनु०
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