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________________ ાર્ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक १. - उद्देशक १. प्रमाणे छे:- [ 'कइमागं' इत्यादि ] केटला भागनो (इत्यादि) ['फासादिंति' ] स्पर्श करे छे ? अर्थात् स्पर्शेन्द्रियवडे आहारना केटला भागनो स्पर्श करे छे? अथवा स्पर्शवडे आस्वादन करे छे स्पर्शवडे अहे छे, उपलभे छे. आथी एम कह्युं केः- जेवी रीते 'रसनेंद्रियपर्याप्तिवडे पर्याप्त जीवो - तैयार भयेली रसनावाळा जीवो - रसनेंद्रियद्वारा आहारनो उपभोग करता आस्वादन करे छे' ए प्रमाणे कहेवाय छे, तेम पृथ्वीकायिक जीवो स्पर्शनेंद्रियद्वारा आदारनो उपयोग करता स्पर्श करे छे ए प्रमाणे व्यवहार थाय छे. [ 'सेतं जहा नेरयागं ति] बाकीतुं जेम नैरविकोने ते जाणी ले ते आ प्रमाणे हे भगवन् पृथ्वी शायिकोर्ने पूर्वे आहार करेला पुलो परिणन्या" इत्यादि तेनुं पूर्वनी जेम व्याख्यान कर. [एवं जाब वगरसहकाइयाणं'ति ] 'आ प्रमाणे यावत् - वनस्पतिकायिकोने पण कहेवुं.' आ वाक्यवडे अप्कायिकादि चारं सूत्रो पृथ्वीकायिक संबंधी सूत्रनी समान छे एम अने बनस्पतिकवायुं. ते चारे प्रकारना जीवोनी स्थितिमां विशेष छे, माटे कहे छे केः -[ 'णवरं-ठिई वण्णेयव्वा जा जस्स'त्ति ] “जे जेनी स्थिति होय ते जल-अभि- पवन वर्णवची." तेने विषे सर्वनी स्थित अपन्यधी अन्तर्मुहूर्तनी छे भने उत्कृष्टताभी अकावनी सात दवार वर्षनी. तेजसनी पग अहोरानी. पावुनी पण हजार वर्षनी अने वनस्पतिकायनी दस हजार वर्षनी समजावी. पृथिव्यादि जीवोनी अनुक्रमे आ उत्कृष्ट स्थिति कही पण हे पृथ्वीकायनी) बाबीस हजार, (जलकायनी ) सात हजार, (अग्निकायनी) त्रण अहोरात्र, (वायुकायनी) त्रण हजार अने वनस्पतिकायनी दस हजार वर्ष. बेइन्द्रिय. ३४. येईदियाणं ईि भाजण उस्सासो बेमायाए. • ३५० प्र० – बेइंदियाणं आहारे पुच्छा ?. ३५. उ० - अणाभोगनिव्वत्तिए तहेव, तत्थ णं जे से आभोगनिव्वत्तिए से णं असंखेज्जसमइए अन्तोमुहुत्तिए वेमायाए आहारट्ठे समुप्पज्जइ. सेसं तहेव जाव - अणंतभागं आसायंति. ३६. प्र०. - बेइंदिया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए हंति, ते किं सव्वे आहारंति, णो सव्वे आहारति ? ३६. उ० – गोयमा ! बेइंदियाणं दुविहे आहारे पत्ते, तं वहाः सोमाहारे, पक्से पाहारे प. जे पोग्गले लोमाहारसाए गिति ते सच्चे अपरिसेसिए आहारेति. जे पक्खेवाहारचाए गिव्हंति तेसि णं योग्गलाणं असं सिजइमांगं आहारेति, अणेगाई गं भागसहस्साई अगासाइजमाणाई, अफासाइजमाणाई, विद्धंसं आगच्छंति. ३७. प्र० - एएसि णं भंते! पोग्गलाणं - अणासाइज्ज़माणाणं, अफासाइज्जमाणाणं य कयरे कयरे - (हिंतो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला या विसेसाहिया वा) ३७. उ०- गोपमा ! सव्वरथोपा पुग्गला - अणासाइयमाणा, अफासाइजमाणा अनंतगुणा. Jain Education International ३४. बेइंद्रियवाळा जीवोनी स्थिति कहीने. तेओनो उच्चा विमात्राए कहेवो. - ३५. प्र० दिवा जीवोना आहार विषयक (पूर्ववत् ) प्रश्न करवो. अर्थात् हे भगवन् ! बेइंद्रियवाळा जीवोने केटले काळे आहारनो अभिलाष थाय छे ? ३५. उ०—हे गौतम ! अनाभोग निर्वर्तित आहार तो पूर्वनी पेठे जाणवो, तेमां जे आभोगनिर्वर्तित आहार छे तेनो अभिलाष विमात्राए असंख्येयसामयिक अंतर्मुहूर्ते थाय छे. बाकी बधुं ते ज प्रमाणे जाणवुं यावद् - अनंतभागने चाखे छे. ३६. प्र०—-हे भगवन् ! जे पुद्गलोने बेइंद्रिय जीवो आहारपणे ग्रहण करे छे तो धुं तेो ते बधा पुद्रलोने खाइ जाप छे, के बधाने नधी खाता ! ३६. उ०- हे गौतम! बेइंद्रिय जीवोनो आहार बे प्रकारो को छे, ते आ प्रमाणे: रोमाहार वा द्वारा लेवातो आहार, प्रक्षेपाहार-मुखमां प्रक्षेपाइने चतो आहार, तेमां तेज जे पुद्रकोने रोमाहारपणे महे छे ते बधा संपूर्णपणे खावामां आवे छे अने जे पुठो प्रक्षेपाहारपणे लेवाय छे तेमांनो असंख्यभाग खावामां आवे छे अने बीजा अनेक हजार भागो चखाया विना, तेम ज स्पर्शाया विना ज नाश पामे छे. ३७. प्र० - हे भगवन् ! ए नहीं चखाएला अने नहीं स्पर्शाएला पुद्गलोमां क्या क्या पुद्गलो अल्प, बहु, तुल्य अने विशेषाधिक छे ? ३७. उ०—हे गौतम! नहीं चखाएला पुद्गलो सौथी थोडा छे अने नहीं स्पर्शाएला पुद्गलो अनंतगुण छे. १. आ शब्दना जे अर्थो कर्या छे ते प्राकृतना धोरणने अनुसरीने कर्या छेः - श्री अभय देव. , > १. मूलच्छायाः न्द्रियाणां स्थितिमा उ निमाचया द्वीन्द्रियाणामाद्वारे पृच्छा! अनामोननिर्वर्तितस्तचैव तत्र योऽसायाभोगनिवर्तितः सोऽसमसामयिक आन्तमोहक विमात्रया आहारार्थः समुत्पयते क्षेत्रं तथैव यावद्-अनामागमाखादयन्ति इन्द्रिया भगवन्वान् पुलान् आहारतया पन्ति सा कि सर्वान् आहरन्ति नो सर्वान् आहरन्ति गौतम इन्द्रियाणां द्विम आहारः प्रप्तः, तयचाः समाहार हारश्व. यान् पुद्गलान् लोमाहारतया गृह्णन्ति तान् सर्वान् अपरिशेषितान् आहरन्ति यान् ( पुद्गलान् ) प्रक्षेपाहारतया गृह्णन्ति तेषां पुद्गलानामसंख्येयमागमादन्ति अनेकानि न भाग अनाखाद्यमानानि अपमानानि विध्वंसमागच्छन्ति एतेषां भगवन् वानाम् अनासाद्यमानानाम्, अस्पर्शमानानां च कतरे उतरेभ्योऽयावा, बावा, तुल्याना विशेषाधिका वा गौतम सर्वस्वोकाः पुखाः अनालायमानाः, अस्पर्शमाना अनन्तगुणाः अनु० , For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004640
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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