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________________ १५ शतक १.-उद्देशक १. मगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. यक्त छे. कर्मपुदगलोना पण अनंत स्कंधो, अनन्त प्रदेशो छे, तेथी तेओ अनुक्रमे प्रतिसमये (समये समये ) ज उदयमा आव्या करे छे, (चाल्या करे कर्मपुतल, छ). तेने विषे जे प्रारंभनो चलन समय छे, ते समयने विषे चालतां कर्मने 'चाल्यु' ए प्रमाणे कहेवाय छे. शंकाः-आ प्रमाणे 'चालतुं' ए वर्तमान होवा वर्तमान भूत केमा छतो, तेने माटे 'चाल्यु' एवो भूतकाळ विषयक व्यवहार केम थाय ? समाधानः-पटनी उत्पत्तिना समयमा प्रथम तन्तुना प्रवेश समये पर, उत्पद्यमान (पेदा यतो) ज पट उत्पन्न थाय छे एम व्यपदेशाय छे. हवे, युक्तिपुरस्सर उत्पद्यमान पटनी उत्पन्नता सिद्ध करवा जणावे छे केः-प्रथम तन्तुनो प्रवेश काळ शरु थयो तेटलामा अर्थात् कपडाने वणवानी क्रिया करतां ज्यारे मात्र एक जत्राग वणाणो होय त्यारे पण 'पट (कपडं) पेदा थाय छे' ए प्रमाणे व्यवहारमा देखवाथी पटनु उत्पद्यमानपणुं प्रसिद्ध ज छे. हवे तेनुं ज उत्पन्नपणुं युक्तिपुरस्सर सिद्ध करीए छीएः २. तथाहिः-उत्पत्तिक्रियाकाल एव प्रथमतन्तुप्रवेशेऽसावुत्पन्नः, यदि पुनर्नोत्पन्नोऽभविष्यत् तदा तस्याः क्रियायाः वैयर्थ्यमभविष्य निष्फलत्वाद् , उत्पाद्योत्पादनार्था हि क्रिया भवन्ति, यथा च प्रथमे क्रियाक्षणे नासावुत्पन्नस्तथा उत्तरेष्वपि क्षणेष्वनुत्पन्न एवासौ प्राप्नोति, को हि उत्तरक्षणक्रियाणामात्मनि रूपविशेषः? येन, प्रथमया नोत्पन्नस्तदुत्तराभिस्तूत्पाद्यते, अतः सर्वदैवानुत्पत्तिप्रसङ्गः, दृष्टा चोत्पत्तिरन्त्यतन्तुप्रवेशे पटस्य दर्शनाद्, अतः प्रथमतन्तुप्रवेशकाले एव किंचिदुत्पन्नपटस्य यावच्चोत्पन्नं न तदुत्तरक्रियया उत्पाद्यते, यदि पुनरुत्पाद्यत तदा तदेकदेशोत्पादन एव क्रियाणाम् , कालानां च क्षयः स्यात् . यदि हि तदंशोत्पादननिरपेक्षा अन्या क्रिया भवति तदोत्तरांशानुक्रमणं युज्येत, नान्यथाः तदेवं यथा, पट उत्पद्यमान एव उत्पन्नस्तथैवाऽसंख्यातसमयपरिमाणत्वाद् उदयावलिकाया आदिसमयात् प्रभृति चलदेव कर्म चलितम् , कथम्? यतो यदि हि तत् कर्म चलनाभिमुखीभूतमुदयावलिकाया आदिसमय एव न चलितं स्यात् , तदा तस्याद्यस्य चलनसमयस्य वैयर्थं स्यात् ,तत्राचलितत्वात् , यथा च तस्मिन् समये न चलितं तथा द्वितीयादिसमयेष्वपि न चलेत् , को हि तेषामात्मनि रूपविशेषः? येन, प्रथमसमये न चलितमुत्तरेषु चलतीति, अतः सर्वदैवाऽचलनप्रसङ्गः, अस्ति चान्यसमये चलनम्-स्थितेः परिमितत्वेन कर्माऽभावाम्युपगमात् ; अत आवलिकाकालादिसमय एव किंचिच्चलितम् , यच्च तस्मिंश्चलितं तच्चोत्तरेषु समयेषु न चलति, यदि तु तेष्वपि तदेवाचं चलनं हत्थमित्तं ओसारिजा, तत्थ चोयए पण्णवर्ग एवं वयासीः-जेणं काले णं निचित छे. जे उल्लंघवामा, कूदवामा, वेगथी जवामां अने कसरत करवार्मा तेणं तुम्नागदारएणं तीसे पडसाडिआए वा, पट्टसाडिआए वा सयराहं समर्थ छे. जे बलुकी छातीवाळो छे. जे छेक, दक्ष, प्रष्ठ, कुशल, मेधावी, हत्थमित्ते ओसारिए से समए भवइ ?, नो इणढे समढे. कम्हा ?, जम्हा सं- निपुण अने निपुणशिल्पप्राप्त छे; (दरजीनो एवो कोइ एक छोकरो) पट खिज्जाण तंतूर्ण समुदयसमिइसमागमेणं पडसाडिआ निप्फज्जइ, उवरिल्लयम्मि शाटिका-कपडानी साडी के पट्टशाटिका जीणा कपडानी साडीने जेटला तंतुम्मि अच्छिन्ने हिटिले तंतू न छिन्नइ, अन्नम्मि काले उवरिल्ले तंतू काळे शीघ्र एक हाथ सुधी फाडे ते काल समय कहेवाय!, तेना उत्तरमा छिजह, अन्नम्मि काले हिट्ठिाले तंतू छिज्जइ, तम्हा से समए न भवद, एवं कहे छ के, ए वात ठीक नथी अर्थात् तेटलो काळ एक समय न कहेवाय. चयंत पन्नवर्ग चोयए एवं वयासी:-जे णं काले णं तुन्नागदारएणं तीसे तेटलो काळ एक समय न कहेवाय तेनो हेतु शुं ?. तो कहे छे के, भाइ। पडसाडिआए वा, पट्टसाडिआए वा उवरिले तंतू छिन्ने से समए न भवइ ?, संख्याता तांतणा भेगा थाय त्यारे एक पटशाटिका उत्पन्न थाय छे अने कम्हा , जम्हा संखिज्जाणं पम्हाणं समुदयसमिइसमागमेणं एगे तंतू निष्फजइ, ज्यां सुधी उपरनो तांतणो छेदातो ( फडातो) नथी त्यां सुधी एनी पछीनोउवरिछे पम्हम्मि अच्छिन्ने हिडिल्ले पम्हे न छिज्जइ, अन्नम्मि काले उवरिल्ले नीचेनो-तांतणो पण छेदातो नथी, अर्थात् उपरना तांतणानो फाटवानो पम्हे छिजइ, अन्नम्मि काले हिटिल्ले पम्हे छिज्जइ, तम्हा से समए न भवइ समय जुदो छे अने नीचेना तांतणानो फाटवानो समय जुदो छ माटे, एक एवं वयंत पन्नवर्ग चोयए एवं वयासीः-जे णं काले णं तेणं तुत्रागदारएणं हाथ सुधी फाडवाना कालने समय न कहेवाय. ए प्रमाणे जणावनार तस्स तंतुस्स उवरिले पम्हे छिने से समए न भवइ ? कम्हा?, जम्हा अणं- पुरुष प्रति प्रेरक पुरुषे कार्वा के, जो एक हाथ सुधी फाडवाना कालने समय ताणं संघायाणं समुदयसमिइसमागमेणं एगे पम्हे निष्फज्जइ, उवरिल्ले संघाए न कहेवाय तो भले, पण दरजीना छोकराद्वारा ते पटशाटिकाना सौथी अविसंघाइए हिडिले संघाए न विसंघाइजइ, अन्नम्मि काले उवरिल्ले संघाए उपरना ज एक तांतणाने कापवामां जेटलो काल लागे छे ते शुं समय विसंघाइज्जइ, अन्नम्मि काले हिडिल्ले संघाए विसंघाइज्जइ, तम्हा से समए न कहेवाय ?, तेना उत्तरमा कहे छे के, ए पण समय न कहेवाय. तेमा न भवइ, इत्तो वि णं सुहुमतराए समए पण्णत्ते. समणाउसो ! असंखिज्जाणं हेतु शु?,तो कहे छे के, भाइ ! ज्यारे संख्याता पक्ष्म-पुंभडां-भेगां थाय छे समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा 'आवलिअत्ति पवुधइ. अनुयोग- त्यारे सूतरनो एक तांतणो बने छे अने ते वा पुंभडाओमां पण ज्यां सुधी. द्वारसूत्र (क. आ• पृ-४२३):-अनु. छेक उपरतुं पुंभटुं कपातुं नथी त्यां सुधी तेनी नीचेर्नु-एनी पछी--पुंभहूं पण कपातुं नथी, अर्थात् जे काले उपरतुं पुंभडं कपाय छे ते काले नीचेनुं पुंभडं कपातुं नथी-ते दरेक पुंभडानो कपावानो काळ जुदो छे माटे एक तांतणो कापतां जेटलो वखत जाय छे तेटलो वखत पण समय न कहेवाय. ए प्रमाणे जणावनार पुरुष प्रति प्रेरक पुरुषे कधू के, जो एक तांतणाना कापवाना कालने समय न कहेवाय तो भले, पण दरजीना छोकराद्वारा उपरना तांतणाना संख्याता पुंभडाओमान एक ज पुंभडं जेटला वखतमा कपाय तेटलो काळ शुं समय न कहेवाय ?. तेना उत्तरमा कहे छे के, तेटलो काळ पण समय न कहेवाय. तेमां हेतु शुं ?, तो कहे छे के, भाइ! ज्यारे परमाणुओना अनंत संघातो मळे त्यारे एक पुंभटुं बने छे अने ज्यांसुधी उपरनो संघात न कपाय त्यांसुधी नीचेनो-एनी पछीनोसंघात पण न कपाय, अर्थात् ते दरेक संघातोने कपावानो काळ भिन्न भिन्न छ माटे एक पुंभडाने कपावानो काल पण समय न कहेवाय. परंतु ए करतां पण जे सूक्ष्मतर काळ छे ते काल ज्ञानिपुरुषोए समय तरीके उपदेश्यो छे. वळी हे आयुष्मन् श्रमण ! एवा असंख्याता समयो मळे त्यारे एक 'आवलिका' थाय छे. ( इत्यादि समग्रकाळनुं माप आगळ कह्या प्रमाणे जाणवू.) अनुयोगद्वार (क० आ० पृ-४२३):-अनु० १. आ ( कर्मपुद्गल) शब्दनो अर्थ आ प्रमाणे छे:-कर्म-पुण्य के पाप, पुद्गल रूपादिगुणवाळो जड पदार्थ. जैनदर्शन पाप अने पुण्यने एक जड वस्तु तरीके परमाणुरूप खीकारे छे. जीवने उपयोगमा आवता आकाशमां (लोकाकाशमां) सर्वत्र तेना (पाप अने पुण्यना) अणुओना थरने थर भरेला छे. पाप अने पुण्यना अणुओ जैनदर्शनमा (पाप अने पुण्यनी) वर्गणा तरीके प्रसिद्ध छे. जैनशास्त्रमा 'पुद्गल' शब्द रूपादिगुणयुक्त जड पदार्थने कहे छे माटे कर्मपुद्गल शब्द पाप अने पुण्यना अणुओना थरने जणावे छे. कर्मने अणुरूप अने मूर्त मानवानां कारणोना जिज्ञासुए जैनकर्मशास्त्रने मनन पूर्वक गवेषः-अनु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004640
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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