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शतक १.-प्रश्नोत्थानः
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र,
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र अने[तवस'त्ति] अHAओनी अंतःकरणनी बात
हेतु होवाथी संयमर्नु अन तप ए बन्ने मोक्षनां प्रधान
अक्षरसंयोगो अथवा सकल अक्षरोनां संयोगो जेने ज्ञेय पणे होय ते, अथवा श्रव्याक्षरसन्निवादी-श्रव्य ( सांभळवा योग्य शब्दो)ने संगतिपणे अहर्निश बोलबाना स्वभाववाळा. आवा अनेकगुणगण युक्त, विनयनी राशि सम तथा शिष्याचारने पालता भगवान् इंद्रभूति श्रमण भगवंत महावीरनी अदरसामन्ते विहरे छे, ए प्रमाणे संबंध मेळववो. अदूरसामन्त-दूर एटले छेटे अने सामन्त एटले पासे, ते बन्नेनो निषेध होवाथी, बह केटे पण नही अने बहपासे पण नहीं. केवी रीते विहार करे छे ते कहे छः [ 'उर्दुजाणु' त्ति ] ऊर्ध्वजानु-जेओना जानु (घुटण) ऊर्ध्व (ऊंचा) छे, शुद्ध पृथ्वीना फर्घजानु. आसन वर्जन होवाथी तथा औपग्राहिकनिषद्याना अभावथी उत्कुटुक आसनवाळा (उभडक बेठेला) ['अहोसिरे'त्ति अधःशिर-नीचे मुख राखवावाळा, अधःशिर. ऊर्च तथा तिरछो द्रष्टिपात न करता नियमित मापवाळा भूभागमा दृष्टि राखवावाळा, [ 'झाणकोट्ठोवगए'त्ति ध्यानकोष्ठोपगत-धर्मध्यान, अथवा शुक्ल- ध्यानकोष्ठोपगत. घ्यानरूप कोठाने प्राप्त थयेला, जेम कोठामा नाखेल अनाज प्रसरतुं (वेरातु) नथी, तेम शुक्लध्यान तथा धर्मध्यानथी जेओनी अंतःकरणनी वृत्ति तथा इंद्रियो चलायमान थती नथी तेवा भगवान् इंद्रभूति, ['संजमेणं'ति] संवररूपं संयमवडे अने ['तवस'त्ति] अनशनादि तपवडे ['अप्पाणं भावेमाणे संयमः तप. विहरइ'त्ति आत्माने भावता विहरे छे. 'संयम अने तप ए बन्ने मोक्षना प्रधान अंग छे' एम स्यापन करवाने संयम अने तपमुं ग्रहण कर्यु छे. नवा कर्मोना अग्रहणमां हेतु होवाथी संयमर्नु अने प्राचीन कर्मोनो निर्जरवार्नु कारण होवाथी तपर्नु मोक्षांगमा प्रधानपणुं छे, कारण के नवा कर्मोनू ग्रहण न करवाथी तथा प्राचीन कर्मोना क्षय करवाथी सकल कर्मक्षयरूप मोक्ष थाय छे.
तए णं से भगवं गोयमे जायसड्डे, जायसंसए, जायकोडहल्ले; त्यार पछी जातश्रद्ध-प्रवर्तेली श्रद्धावाळा, जातसंशय, जातकुउप्पण्णसड़े, उप्पण्णसंसए, उप्पण्णकोऊहल्ले; संजायसड़े, संजाय- तूहल, उत्पन्नश्रद्ध, उत्पन्नसंशय, उत्पन्नकुतूहल, संजातश्रद्ध, संजासंसए, संजायकोऊहल्ले, समुप्पण्णसड़े, समुप्पण्णसंसए, संमुष्पण्ण- तसंशय, संजातकुतूहल, समुत्पन्नश्रद्ध, समुत्पन्नसंशय अने समुत्पन्न कोहल्ले उठाए उठेइ, उट्ठाए उद्वित्ता जेणेव समणे भगवं महा- कुतूहल ते भगवान् गौतम उत्थानवडे उभा थाय छे; उत्थानवडे वीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं उभा थईने जे तरफ श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां आवे छे; आवी तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, वंदइ, नमसइ, नमंसित्ता श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार प्रदक्षिणा करे छे, प्रदक्षिणा करी णचासण्णे, णाइरे, सुस्सूसमाणे, नमसमाणे अभिमुहे विणएणं वांदे छे, नमे छे, नमी बहु निकट नहीं तेम बहु दूर नहीं एवी रीते पंजलिउडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी:
भगवंतनी सामे विनयवडे ललाटे हाथजोडी भगवंतना वचनने श्रवण करवानी इच्छावाळा भगवंतने नमता अने पर्युपासता चारआतमां आ प्रमाणे बोल्याः
१. मूलच्छायाः-तदा स भगवान् गौतमो जातश्रद्धः, जातसंशयः, जातकुतूहलः; उत्पन्नश्रद्धः, उत्पन्नसंशयः, उत्पन्नकुतूहलः; संजातश्रद्धः, संजातसंशयः, संजातकुतूहलः; समुत्पन्नश्रद्धः, समुत्पन्नसंशयः, समुत्पन्नकुतूहल उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थया उत्थाय येनैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तेनैव उपागच्छति, उपागम्य भ्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, कृत्वा वन्दते, नमस्यति, नमस्थित्वा नात्यासत्रः, नातिदूरः, शुश्रूषमाणः, नमस्यन् अभिमुखो विनयेन कृतप्राञ्जलिः पर्युपासीन एवमवादीत्,
१. आ (औपग्राहिक) शब्द मूळ उपग्रह शब्दयी बने छ: उपपासे+प्रह-ग्रहण करवू अर्थात् 'पासे राखq'. ए उपग्रह शब्दनो व्युत्पत्त्यर्थ छे. जैनपरिभाषामा ते (औपग्राहिक) शब्द श्रमणोना-साधुओना जे उपकरणोनुं मात्र संयम माटे ज प्रयोजन ते उपकरणोनो सूचक छे:-प्रवचनसारोद्धार द्वार ६०, गा० ४९८:-अनु.
२. आ (धर्मध्यान) शब्दनो स्थूल अर्थ 'धर्मविषयक चिंतन' छे, पण ते शब्द अमुक प्रकारना चिंतनमा ज जैनपरिभाषाए स्वीकार्यों छे. "आज्ञा-अपाय-विपाक-संस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य"
“आज्ञाना, अपायना, विपाकना अने संस्थानना निर्णय माटे एकाप्रपणे (उमाखाति, तत्त्वार्थ० अ० ९, सू० ३७)
चिंतन ते धर्मध्यान." जिनप्रवचन ते आज्ञा कहेवाय. अपाय ते रागद्वेषादिकथी उत्पन्न थता अनर्थो कहेवाय, विपाक ते कर्म-पुण्य अने पाप-नुं फल कहेवाय अने संस्थान ते द्वीप अने समुद्रादिकना आकारो कहेवाय. ( उमाखाति, तत्त्वार्थ. अ० ९, सू०३७). आ ज प्रमाणे ( क. आ. भ. श० २५, पृ०-१८०३-४ ) मां पण 'धर्मध्यान' शब्द- विवेचन स्फुटपणे करेलुं छे:-अनु.
३.आ (शुक्लध्यान)शब्दनो लौकिक अर्थ-शुक्ल-धोढुं. ध्यान-चिंतन अर्थात् 'पवित्र चिंतन' थाय छे, पण जैनपरिभाषाए ते शब्द अमुक अर्थमा ज वापर्यो छे:"पृथक्त्व-एकत्ववितर्क-सूक्ष्म क्रियाऽप्रतिपाति-व्युपरतक्रियाऽनिवृत्तीनि" 'शुक्लध्यान' शब्दथी नीचे लखेला चार अर्थों जैनदृष्टिए प्रसिद्ध छे:-१. "पृथ(उमा० तत्त्वार्थ० अ० ९, सू०४१)
. क्त्ववितर्क, २. एकत्ववितर्क, ३. सूक्ष्मक्रिय अप्रतिपाति-अनिवृत्त, ४. व्युपरतक्रिय अनिवृत्ति-समुच्छिन्नक्रिय अप्रतिपाति. पृथक्त्ववितर्क-पृथक्त्व संबंधी वितर्क, एकत्ववितर्क-एकत्व संबंधी वितर्क, सूक्ष्मक्रिय अप्रतिपाति-प्रतिपात (पातन) रहित सूक्ष्म क्रियावाळो व्यापार. व्युपरतक्रिय अनिवृत्ति-क्रिया विनानो निवर्तन रहित व्यापार." ए चारे शब्दनो स्फुट अर्थ आ प्रमाणे छेः-एक पदार्थ संबंधी उत्पत्ति, स्थिति, नाशादिक धर्मनो भेदपूर्वक जे वितर्क ते 'पृथक्त्ववितर्क', ते विचारसहित होय छे. वळी अर्थथी व्यंजनमां तथा व्यंजनथी अर्थमा मन, वचन अने शरीर संबंधी व्यापारोनुं विचरण ते विचार कहेवाय छे. उत्पत्ति वगेरे अनंत धर्मोमांना कोइ पण एक धर्मने (पर्यायने) अवलंयी अभेदपूर्वक जे वितर्क. ते 'एकत्ववितर्क. ते विचाररहित होय छे. मनना अने वचनना संपूर्ण निरोध अने शरीरना अर्ध निरोधने 'सूक्ष्मक्रिय' कहे छे अने ते आगळ आगळ वधवाना परिणाम सहित होवाथी निवर्तनरहित छे. शरीरनी, वचननी अने मननी क्रियाओना समूळगा नाशने 'समुच्छिन्नकिय' कहे छे अने ते प्रतिपारहित छे. (उमा तत्त्वार्थ० अ० १, सू०४१). आज प्रमाणे (क. आ. भ. श. २५ पृ० १८०३-४) मा 'शुक्लध्यान' शब्द परत्वे स्फुट विवेचन छ:-अनु. ____४. आ (संवर) शब्द 'स' पूर्वक '' धातुथी बने छे. तेनो अर्थ 'संवरवु' अर्थात् 'रोकवु' थाय छे. बहुलताए जैनपरिभाषामां ते शब्द अमुक प्रकारना 'रोकवा'मां वपराय छे.
___ "आस्रवनिरोधः संवरः" (उमा. तत्त्वार्थ० अ०५,सू०१) “आस्रवनो निरोध ते संवर" अने आस्रव एटले शरीरनो, वचननो अने मननो शुभ के अशुभ व्यापार अर्थात् पुण्य के पापना रोकवाने संबर कहे छे.) उमा० तत्त्वार्थ० अ०९, सू०१):-अनु.
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