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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह.
शतक १.-प्रश्नोत्थान.
महातपः उदार. साधारण पुरुषबडे न करी शकाय तेवु कर्यु, [ 'महातवे'त्ति ] महातपा-इच्छारूप दोषरहित होवाथी प्रशस्त तप करवावाळा, [ 'ओराले'त्ति ] ओराल-भीम, घोर. उग्रादि विशेषणयुक्त तप करवाथी, अल्प सत्त्ववाळा पार्श्वस्थो (पासत्थाओ) ने भयानक, अन्य कहे छे के:-"ओराल एटले उदार प्रधान" ['घोरे'त्ति
घोर एटले निघृण अर्थात् परिषह तथा इंद्रियादि शत्रुसमूहना विनाशने आश्रीने निर्दय, अन्य तो कहे छे के:-"घोर एटले आत्मनिरपेक्ष" घोरगुणःघोरतपस्वी, ['घोरगुणे त्ति ] घोरगुण-अन्य पुरुषोवडे आचरी शकाय नहीं. एवा मूलगुण वगेरे गुणयुक्त, ['घोरतवस्सि'त्ति ] घोरतपखी-घोर तपस्याओ करवावाळा घोरब्रह्मचर्यवासी. होवाथी घोरतपस्वी, [ 'घोरबंभचेरवासि'त्ति ] घोरब्रह्मचर्यवासी-घोर एटले अल्प सत्त्ववाळा प्राणिगणवडे दुरनुचर होवाथी दारुण एवं जे ब्रह्मचर्य तेने उत्क्षिप्तशरीर. विषे वसवाना स्वभाववाळा अर्थात् घोर ब्रह्मचर्यना पालक, [ 'उच्छूढसरीरे'त्ति ] उज्झितशरीर-जेओए शरीरना संस्कारोनो त्याग करवाथी शरीरने तेजोलेश्या.
त्यक्तवत् कर्यु छे ते, [ 'संखित्तविउलतेयलेस्से'त्ति ] संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्य-शरीरनी अंदर लीन होवाथी संक्षिप्त-लघुताने प्राप्त थएली, अनेक योजन' प्रमाण
क्षेत्रमा रहेला पदार्थोनुं दहन करवामां समर्थ होवाथी विपुल, तेजोलेश्या एटले तप विशेषथी थयेल लब्धिविशेषद्वारा उत्पन्न तेजोज्वाला, ते वडे चतुर्दशपूर्वी. युक्त, ['चोद्दसपुग्वि'त्ति ] चतुर्दशपूर्वी-तेओए ज चौदपूर्वोनी रचना करेली होवाथी जेओने चौदपूर्वो विद्यमान छे तेवा, आ विशेषणद्वारा शास्त्रकारे
गौतमस्वामिनु श्रुतकेवलिपणुं बताव्यु. चौदपूर्वी होवा छतां पण अवधिज्ञानादिरहित होय, आ शंकाना निवारण माटे कहे छे के, ['चउनाणोवगए'त्ति] चतुर्शानघर. चतुर्ज्ञानोपगत--केवलज्ञान शिवायना चार ज्ञानवाळा. उक्त बन्ने विशेषणोयुक्त होवा छतां पण कोइ संपूर्ण श्रुतविषय ज्ञानवाळो न होय, कारण के चौदसर्वाक्षरसन्निपाती. पूर्वीओ छ स्थानक पतित अर्थात् छ स्थानकवाळा सांभळ्या छे; आवी शंका निवारवा कहे छे के, [ 'सव्वक्खरसन्निवाइ'त्ति ] सर्वाक्षरसंन्निपाती-सम्पूर्ण
१. 'पूर्व' शब्दनो परिचय आ रीत्या छः-तीर्थकरोए नीचे प्रमाणे चौद पूर्वो कहेला छे. सर्वे अंगो करतां पहेला ते कहेल छे माटे ते 'पूर्व' कहेवाय छे. जेनां नाम अने अर्थ आ प्रमाणे छे:-१. उत्पाद, २. अग्रायणीय, ३. वीर्यप्रवाद, ४. अस्तिनास्तिप्रवाद, ५. ज्ञानप्रवाद, ६. सत्यप्रवाद, ७. आत्मप्रवाद, ८. कर्मप्रवाद, ९. प्रत्याख्यानप्रवाद, १०. विद्याप्रवाद, ११. कल्याण, १२. प्राणावाय,१३. क्रियाविशाल, १४. लोकबिंदुसार. उत्पाद-सर्वद्रव्योना अने पर्यायोना उत्पादनुं प्रतिपादक ते 'उत्पादपूर्व.' अग्रायणीय-सर्वद्रव्योना, पर्यायोना अने सर्व जीवविशेषोना अग्र परिमाण- प्रतिपादक ते 'अग्रायणीयपूर्व.' सकर्मक अने अकर्मक जीवोनी अने अजीवो (जड़पदार्थों)नी शक्तिर्नु प्रतिपादक ते 'वीर्यप्रवादपूर्व.' अस्तिनास्तिप्रवाद-अस्तिनास्ति एटले जेम लोकमां छे अथवा नथी, अथवा स्याद्वादना अभिप्रायथी जे छे ते ज नथी ते अस्तिनास्ति, तेनुं प्रतिपादक ते 'अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व.' ज्ञानप्रवाद-भेद सहित मतिज्ञानादि पांच ज्ञान- प्रतिपादक ते 'ज्ञानप्रवादपूर्व.' सत्यप्रवाद-सत्य-संयम अथवा साचुं, भेद सहित संयमर्नु अथवा प्रतिपक्ष सहित ( असत्यसहित ) सत्यनुं प्रतिपादक ते 'सत्यप्रवादपूर्व.' आत्मप्रवाद-नयदर्शनपूर्वक आत्मानुं प्रतिपादक ते 'आत्मप्रवादपूर्व.' कर्मप्रवाद-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग अने प्रदेशादि भेदपूर्वक तथा उत्तर भेदपूर्वक ज्ञानावरणादि आठ प्रकारना कर्मनुं प्रतिपादक ते 'कर्मप्रवादपूर्व.' प्रत्याख्यानप्रवाद-सर्वप्रत्याख्यानना खरूपर्नु प्रतिपादक ते 'प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व.' विद्याप्रवाद-विद्याना अतिशयोनुं प्रतिपादक ते 'विद्याप्रवादपूर्व.' कल्याण-कल्याणरूप फलमां कारण होवाथी 'कल्याणपूर्व.' प्राणावाय-जेमा भेद सहित प्राणविधान अने बीजा प्राणो वर्णवेला छे ते 'प्राणावायपूर्व.' क्रियाविशाल-जेमां भेदसहित कायिकी वगेरे अने सयंमादि क्रियाओ कहेली छे ते 'क्रियाविशालपूर्व.' लोकबिंदुसार-जेम अक्षरने माथे बिंदु होय छे तेम लोकमां अथवा श्रुतलोकमां सर्वाक्षर संनिपातपरिनिष्ठित होवाथी जे सर्वोत्तम शिरोभूत छे ते लोकबिंदुसार.-अभिधानचिंतामणि (य. पं० पृ-१०४ थी १०६):-अनु.
२. निर्ग्रन्थ (जैन) परिभाषामा 'ज्ञान' शब्द नीचे प्रमाणे सूचक छेः-जेम आ गगनमंडलमा विचरता सूर्यने आपणे साक्षात् देखीए छीए अने ज्यारे तेना आडो वादळांनो थर आवे छे त्यारे तेनो प्रकाश मंद थाय छे, ते पण आपणे अनुभवीए छीए. आपणे त्यांसुधी पण चोकस जाणी शकीए छीए के ज्यांसुधी सूर्य अस्त न थयो होय त्यां सुधी तेनी आडां गमे तेवा वादळांना थर आवे तो पण तेना प्रकाशनी झांखी तद्दन नष्ट थती नथी; ते ज प्रकारे आ जीवसंबंधे पण समजवानुं छ; अर्थात् जीव ज्ञानरूप प्रकाशवाळी होवाथी एक जळहळता सूर्य समान छे. ते जीवनी उपर ज्यारे ज्ञानावरणीय-ज्ञानरूप प्रकाशने ढांकवावाळा-कर्मना थरो जामेला होय छे त्यारे ते जीवनो ज्ञानरूप प्रकाश ते थरोथी आच्छादित थवाने लीधे ते ज्ञानावरणीय कर्मना थरोनी न्यूनाधिकता प्रमाणे जुदा जुदा प्रकारनो-कोइनो अल्प भने कोइनो अधिक-देखाय छे. जैनशास्त्रमा तेवा जुदा जुदा प्रकारवाळा ज्ञानरूप प्रकाशना मुख्य रीते पांच भेद कह्या छे. ते आ छे:-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान अने केवलज्ञान. जे जीवे पोता उपर लागेल अने मतिज्ञानने आच्छादित करनार कर्मना थरो खसेड्या छे अने उपशमाव्या छे ते जीव पोताना मतिज्ञानथी मन अने इंद्रियद्वारा मात्र वर्तमान पदार्थाने जाणी शके छे, पण वर्तमान पदार्थनी थएली के थवानी अनंत हालतोने (पर्यायोने ) ते जाणी शकतो नथी. जे जीवे पोता उपर लागेल अने श्रुत ज्ञानने आच्छादित करनार कर्मना थरो खसेव्या.छे अने उपशमाव्या छे ते जीव पोताना श्रुतज्ञानथी अने पूर्वोक्त मतिज्ञान तथा आप्तपुरुषना उपदेशनी सहायताथी त्रणे कालना पदार्थने जाणी शके छे, पण ते पदार्थोनी थएली के थवानी अनंत अवस्थाओने जाणी शकतो नथी. जे. जीवे पोता उपर चोटेल अने अवधिज्ञानने आच्छादित करनार कर्मना थरो खसेड्या छे अने उपशमाव्या छे ते जीव पोताना अवधिज्ञानथी इंद्रिय के मननी सहायता लीधा विना गमे ते कालना तथा गमे त्यां रहेलं मात्र रूपवाळा ज पदार्थाने जोइ शके छे, पण ते पदार्थोनी थएली के थवानी अनंत हालतोने जोइ शकतो नथी. जे जीवे पोता उपर बाझी गएल अने मनःपर्यवज्ञानने ढांकनारा कर्मोना थरो खसेज्या छे अने उपशमाव्या छे ते जीव पोताना मनःपर्यवज्ञानधी फक्त मनवाळा प्राणीओए विचार करवा माटे ग्रहण करेल मनना अणुओने ज जाणी शके छे अने जे जीवे पोता उपर लागेल अने केवलज्ञानने ढांकनार कर्मोना थरो तद्दन खसेज्या छे-समूळगा नष्ट कर्या छे-ते जीव मात्र पोताना केवलज्ञानथी ज दूरना के नजीकना, परोक्ष के प्रत्यक्ष, सूक्ष्म के मोटा, वर्तमानना, भूतना के भविष्यत्कालना तथा रूपवाळा के रूपरहित पदार्थोने अने ते पदार्थोनी थएली, थती अने थवानी अनंत अवस्थाओने पण जाणे छे तथा ते सर्वज्ञ कहेवाय छे. "मतिश्रुतयोर्निबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु"
"सर्व पर्याय विनाना सर्व द्रव्यो मति अने श्रुतज्ञानथी जणाय छे." "रूपिष्ववधे"
"मात्र रूपबाळा ज पदार्थो अवधिज्ञानथी जणाय छे." "तदनन्तभागे मनःपर्यायस्य"
"अवधिज्ञानना अनंत भागनुं मनःपर्यवज्ञानथी जणाय छे." “सर्वव्य-पर्यायेषु केवलस्य"
"वधा द्रव्य अने पर्यायो केवलज्ञानथी जणाय छे." (उमा० तत्त्वा० अ० १, सू० २७, २८, २९, ३०). (उमा तत्त्वा० अ० १, सू. २५, २८, २९, ३०):-अनु. ३. आ छ स्थानोने जणायनारी गाथा प्रवचनसारोद्धारना २६.द्वारमा ४३२ मी छे. ते छ स्थानकोना नाम आ प्रमाणे छे:-१. अनन्तभाग, २. असंख्यातभाग, ३. संख्यातभाग, १. संख्यातगुण, २. असंख्यातगुण, ३. अनन्तगुण.:-अनु.
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