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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह.
शतक १.-प्रश्नोत्थान
ल गतिवाळा, लंघन-उद्धंघ_-वल्गन, धावन, Amiळी आंखवाळा, चंचु समान बकपणे
ती अने शिक्षित गतियाळा, दोलायमान,
वाळा, हासकरो-हसावनारा, डमरकरो, चाटुकारो, कांदर्पिको, उपहास करनारा, कौकुच्यो-मांडो, क्रीडा करनारा, वगाडता, गाता, हसता, नाचता, बोलता, संभळावता, रक्षा करता, आलोक-दर्शन-करता, जय जय शब्दने प्रयोजता, आगळ क्रमपूर्वक संप्रस्थित थया. त्यार बाद जाल्य-उत्तम, वेगधारक वर्ष(उमर)वाळा-जुवान, हरिमेला-वनस्पति विशेष-ना डोडा अने मालति समान विकसित नेत्रवाळा-धोळी आंखवाळा, चंचु समान वक्रपणे पादने उंचो करनारा तथा ललित, पुलित, चल, चपल अने चंचल गतिवाळा, लंघन-उल्लंघवु-वलान, धावन, धोरण-गतिचातुर्य, त्रिपदीकरण-त्रणपगे उभा रहेg, जयवती अने शिक्षित गतिवाळा, दोलायमान, रम्य गलस्थित वर भूषणवाळा, मुखनां घरेणां, अवचूल-लटकता गुच्छा अने दर्पणाकार पदार्थोवाळा, पल्हाणथी अने चामर दंडथी परिमंडित कटीवाळा,तरुण अने उत्तम किंकरोए परिगृहीत एकसोने आठ घोडाओ यथानुपूर्व्या आगळ संप्रस्थित थया. त्यार वाद थोडा दांत-पळोटेला, ईषन्मत्त, थोडा उंचा, पाछळना भागमां थोडा विशाळ धोळा दांतवाळा, सुवर्णनी कोशी-खोळां-युक्त दांतवाळा, कांचन, मणि अने रत्नथी भूषित, चडेला उत्तम पुरुषोथी संप्रयुक्त एकसो ने आठ हाथीओ आगळ क्रमपूर्वक संप्रस्थित थया. त्यार वाद सछत्र, सध्वज, सघंट-टोकरासहित, पताकासहित, वर तोरण सहित, नंदिघोष-वाद्यघोष-सहित, घुघरीओना समूहथी परिक्षिप्त, हिमवंत पर्वतोत्पन्न विचित्र तृण अने कनक सहित निर्युक्त-जोडेलां-लाकडावाळा, श्याम लोहथी सुकृत नेमि यंत्रवाळा, मुश्लिष्ट, वृत्तमंडलने धरनारा, उत्तम वर अश्वोथी संप्रयुक्त,कुशल नर अने छेक सारथिओथी संप्रगृहीत, बत्रीश तूणथी परिमंडित, कंकट अने शेखर सहित, चाप, शर, प्रहरणावरण (ढालादि) थी भृत अने युद्ध सज एवा एकसोने आठ रथ आगळ यथानुपूर्वीए संप्रस्थित थया. त्यार वाद असि-तरवार, शक्ति, कुंत, तोमर, शूल, लकुट-लाकडी, भिंडिपाल-शस्त्रविशेष, अने धनुषने हाथमा धरनारं सज पदाति सैन्य आगळ क्रमपूर्वक संप्रस्थित थयु. त्यारे ते हारथी आच्छादित सुकृत वक्षःस्थळवाळो, कुंडलोथी मुखने शोभावनार, मुकुटथी मस्तकने दीपावनार कूणिक राजा, नरसिंह, नरपति, नरेंद्र, नरवृषभ, मनुजना राजाओमां वृषभकल्प-उत्तम, अधिक राजतेजलक्ष्मी वडे दीपतो, हस्तिना वर स्कंध उपर चडेलो, कोरंटक पुष्पनी माळावाळा धराता छत्र सहित, उद्धवन करतां श्वेत चामरो बढे वैश्रमण-कुवेर-नी पेठे हतो. ते राजाए, इन्द्र समान ऋद्धि बडे, विस्तीर्ण कीर्ति बडे, घोडा, हाथी, रथ अने प्रवर योधाओथी कलित चतुरंगिणी सेना वडे समनुगम्यमान मार्गित थइ जे तरफ पूर्णभद्र चैत्य छ, ते तरफ जवा संकल्प कर्यो. सारे ते भंभसारपुत्र कुणिक राजानी आगळ मोटा घोडाओ, अश्वधरो बन्ने बाजुए हाथीओ; हस्तिधरो अने पाछळ रथनो समूह हतो. त्यार बाद ते अभ्युद्गत,गार-जेने माटे पाणीनी झारी लीधेली छे, प्रगृहीततालवृन्तजे प्रत्ये पंखो धरेलो छे, उंचा करेल श्वत छत्रवाळो, बाल व्यजनथी वीजातो, ते भंभसारपुत्र कूणिक राजा सर्व ऋद्धीए, सर्व द्युति वडे, सर्व बल वडे, सर्व समुदाय वडे, सर्वादरपूर्वक, सर्व विभूति बडे, सर्व विभूषा वडे, सर्व संभ्रम-भक्तिभाव-वडे, सर्व पुष्प, गंध, माल्य अने अलंकार वडे, सर्व वाजीनशब्दना संनिनाद वडे, मोटी ऋद्धीए, मोटी द्युतिए, मोटा बल वडे, मोटा समुदाय वडे, मोटा उत्तम वादिनना यमकसमक-एकसाथ-प्रवादित वडे, शंख, पणव, पटह, भेरि, झालर, खरमुखी, हुडक, मुरज, मृदंग, दुंदुभिना निर्घोषणादिक शब्द वडे चंपानगरीनी वचोवच नीकळ्यो, त्यां निकळता तेने घणा अर्थाथि, कामाथि, भोगार्थि, लाभार्थि, किल्बिषको, कारोडीआओ, करथी पीडित थयेला लोको, शंखवाळा, चकवाळा, खेडुतो, मुखमंगलिया, वर्धमान-खंधे बेठेला पुरुषो, पूष्यमाण-भाटो, खंडिक गण-छात्रना समूहो; ते ते इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनोगम्य, मनोभिराम, हृदयगमनीय वाणी वडे, सैंकडो जय विजय मंगल वडे, अविरत अभिनंदता, अभिस्तुवता एम बोल्याः-नंद-आनंद-देनार ! जय पाम, जय पाम; हे भद्र ! जय पाम, जय पामः तने भद्र थाओ, तुं नहीं जीताएलाने जीत, जीताएलानुं पालन कर, जीताएलानी मध्यमां रहे, जेम देवोने इन्द्र, असुरोने चमर, नागोने घरण, ताराओने चंद्र, मनुष्योने भरत, तेम बहु वर्षों, बहु शत वर्षों, बहु हजार वर्षों, बहु लक्ष वर्षों सुधी निर्दोष खमार्गवाळो थइ परमायु भोगव, अने. इष्ट जनथी परिवृत थइ चंपानगरीनुं, तेम ज बीजा पण बहु गाम, आकर-खाण, नगर-कर विनानु, खेटक-धूळना गढवाळु, कर्बट-कुनगर, मडंबजेनी पासे गाम न होय ते, द्रोणमुख-जल अने स्थळ मार्ग युक्त, पट्टन, आश्रम, संवाह-पर्वतनी नीचे दुर्ग स्थानमा रहेलं स्थान, अने संनिवेशोगायना वाडा वगेरे-नुं आधिपत्य, पौरपतिल, खामिल, भर्तृख, महत्तरकल, आज्ञेश्वरसेनापतिल करतो, पालतो, मोटा आहत नाव्य, गीत, वादित्र, वीणा, ताल, तुडिअ, घन, मृदंग, अने पटु पटहना प्रवादित शब्द वडे विपुल भोग्य भोगोने भोगवतो विहर, एम करी तेओ जय जय शब्दने प्रयोजे छे, त्यार बाद भभसारपुत्र कूणिक राजा हजारो नयनमाला वडे जोवातो २, हजारो हृदयमाला वडे अभिनंदातो २, हजारो सुंदरमाला वडे स्पर्शातो २, हजारो वचनमाला वडे अभिस्तवातो २, कांति, अने दिव्य सौभाग्य वडे जोवातो २, बहु हजार नर नारीओनी हजारो अंजलिमालाओने जमणा हाथे प्रतीच्छतो २, सुंदर सुंदर घोष बडे प्रतिपूछतो २, हजारो भवन श्रेणीओने उल्लंघतो चंपानगरीनी वचोवच नीकळी, ज्या पूर्णभद्र चैत्य छ, त्यो आवी श्रमण भगवंत महावीरना अदूरनिकट स्थित छत्रादि तीर्थकरातिशय जोइ अभिषेक हस्तिरत्नथी उतरी, खड्ग, छत्र, मुकुट, उपानह, बालव्यजन; ए पांच राजचिहने दूर करी ज्यां श्रमण भगवंत महावीर खामी छे, त्या आवी श्रमण भगवंत महावीरने पांच प्रकारना अभिगमे अभिगमे छे, अर्थात्-१. सचित्त द्रव्योने त्यजी, २. अचित्त द्रव्योने राखी, ३. एक शाटिक उत्तरासंग करी, ४. भगवंतने जोइने ज हाथजोडी, अने ५. मनने एकाग्र करी;श्रमण मगवंत महावीरने त्रणवार प्रदक्षिणा करी कायिक, वाचिक अने मानसिक पर्युपासना बडे पर्युपासे छे. कायिक पर्युपासना वडे पर्युपासतो-संकुचित हस्तपादानकरी शुश्रूषा करतो, नमतो, सामो अंजलिपुट करी विनय वडे पर्युपासे छे. वाचिक पर्युपासना वडे पर्युपासतो-भगवंत जे जे कहे छे, ते हे भगवन् ! ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते प्रमाणे छे, हे भगवन् ! अवितथ-सत्य छे, हे भगवन् ! असंदिग्ध छे, हे भगवन् ! इच्छित छे, हे भगवन् ! प्रतीच्छित छे, हे भगवन्! इच्छित, प्रतीच्छित छे. ए प्रमाणे करी अप्रतिकूलपणे पर्युपासे छे. मानसिक पर्युपासना बडे पर्युपासतो-मोटा संवेगने उत्पन्न करी, तीव्र धर्मानुरागथी रक्त बनी पर्युपासे छे-औपपातिकसूत्र ( क. आ० पृ-१७०-२१८)-अनु. .
३. अंतःपुरनिर्गम अने पर्युपासनाः-त्यार बाद ते सुभद्रा प्रमुख देवीओ अंतःपुरमा स्नान करी यावत् मंगल अने कौतुकादि करी सर्व अलंकारथी विभूषित थई घणी कुब्ज-वांकी जांघवाळी-दासीओ वडे, चिलात देशमा उत्पन्न थएली दासीओ वडे, वामन ( ढीचकी ) दासीओ वडे, मोटा पेटवाळी दासीओ वडे, बर्बर देशनी, पओस देशनी, योनिक देशनी, प्रल्हविक देशनी, ऋषिगणिक देशनी, वर्षगणिक के वासगणिक देशनी, ल्हासिक देशनी, लओस देशनी, सिंहल देशनी, दमिल देशनी, आरव देशनी, पुलिंद देशनी, पक्वण देशनी, वहल देशनी, मुरुड देशनी, शवर देशनी अने पारस देशनी; ए प्रमाणे अनेक देश तथा विदेशनी भेगी थएली दासीओ वडे, वळी इंगित, चिंतित अने प्रार्थितने जाणनारी तथा पोत पोताना देशना वेषने पहेरनार अनेक दासिओना समूहथी तथा अंतःपुरमा रहेनार बर्षधर, कंचुकि अने महत्तरकना समूहथी व्याप्त थई अंतःपुरथी नीकळी ज्यां एक एक जोडेला यात्राभिमुख यानो छे, त्यां आवी, तेमा चडी पोताना परिवारथी संपरिवृत थइ चंपानगरीनी वचोवच नीकळी, ज्यां पूर्णभद्र चैत्य छे, त्यां आवी श्रमण भगवंत महावीरनी अदूरनिकट तीर्थकरातिशय छत्रादिने जोइ यानोने उभा रखावी, यानोथी उतरी तेओ धणी कुब्जादि दासीओ बडे परिक्षिप्त थइ ज्या, श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां आवी, १. सचित्त द्रव्योने त्यजी, २. अचित्त द्रव्योने राखी, ३. गात्रयष्टि-शरीर-ने विनयथी अवनत-नम्र-करी, ४. भगवंतने जोइ हाथ जोडी ५. मनने एकाग्र करी श्रमण भगवंत महावीरने त्रणवार प्रदक्षिणा दइ वांदे छे, नमे छे; नमी कूणिक राजाने आगळ करी सपरिवार ते सुभद्रादि देवीओ विनय वडे अभिमुख थइ हाथजोडी उभी उभी ज श्रमण भगवंत महावीरने पर्युपासे छे.-औपपातिक सूत्र (क. आ०-२१८-२२२)-अनु.
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