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भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
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पताका उपर पताका मंडित अने छाणथी लिप्त तथा सेटिकादिथी संसृष्ट, चंदरवाथी महित, गोशीर्ष अने सरस रक्त चंदनथी लिप्त (यावत्) गंधवर्तिका - भूत करो, करावो करी करावी आ मारी आहा पाछी आपो ( स्वार बाद) हुं श्रमण भगवंत महावीरने वदला जा यार बाद ए प्रकारे कृषिक राजा वडे आज्ञप्त थयो सतो ते बलव्यापृत दृष्ट, तुष्ट अने आनंदित चित्तवाळी थई मस्तकर्मा करतल परिगृहीत शिरसावर्त अंजलि करी एम बोल्योः - हे स्वामी, अने तेनी आज्ञानुं वचन विनयवडे प्रतिश्रव्युं प्रतिश्रवी तेणे हस्तिव्यापृतने आमंत्री एम कद्दुः- हे देवानुप्रिय ! भंभसारपुत्र कूणिक राजाना अभिषेक हस्तिने तैयार करो अने घोडा, हाथी, रथ तथा प्रवर योधाओथी कलित चतुरंगिणी सेनाने करो, ए प्रमाणे तैयार करी मारी आज्ञा प्रत्यप. त्यार बाद तनुं ए प्रमाने कथन समिती आज्ञा प्रतिष, प्रतिषयी छेकाचार्यन्ना गुनिपुण उपदेश अने मतिविकल्पनाना विकल्पो वडे सुसज्ज, धार्मिक, संनद्ध, बद्ध, कवचित - बख्तरवाळा, उत्पीडित दृढबद्ध, कच्छवाळा, वक्षनुं भूषण, प्रैवेयक अने गळामां बद्ध वर भूषणोथी विराजित, अधिक तेजयुक्त सुंदर कर्णपूरची विराजमान उसूल मणा आला मदतुव्य भ्रमरो वडे अंधकार करनार, विचित्र परिच्छेदवा प्रच्छद-उपरना वस्त्रवाळा, शस्त्रो अने आवरणो ( ढालादि ) थी भृत, युद्धसज्ज, सध्वज, सघंट, पताकासहित पांच शिखरवडे परिमंडित, अभिराम, बने बाजु उत्सारित ( लटकता ) घंटयुगलवाळा, विद्युत्पिनद्ध श्याममेघनी पेठे, उत्पात पर्वतनी पेठे चालता, मत्त, गुलगुलाट करता, मन अने पवनना वेगने जितनार भीम, संग्रामने योग्य अभिषेक हस्तिराजने प्रतिकल्पे छे, प्रतिकल्पी चतुरंगिणी सेनाने घोडा, हाथी, रथ भने प्रवर योधाओथी परिकलित करे छे, ए प्रमाणे तैयार करी ज्यां बलव्यापृत छे त्यां आवी तेणे आपली आज्ञा पाछी आमतेम तेम जगावे छे. स्वार बाद ते बलव्याहते यानशालिने बोलायी एम का हे देवानुप्रिय सुभद्रा प्रमुख देवीओ माटे बहारंनी उपस्थान शालासां- प्रत्येक प्रत्येक एक माटे एक -एम यात्राभिमुख जोडेलां यानो तैयार करी उपस्थापित करो भने म करी मारी आज्ञा प्रत्यर्पो. त्यार बाद ते यानशालिक बलव्यापृतना ए अर्थने आज्ञाए विनयपूर्वक प्रतिश्रवे छे, प्रतिश्रवी ज्यां यानशाला छे, त्यां आवी यानोने प्रत्युत्क्षेपे छे-नजरे जुए छे, नजरे जोइ साफ करे छे, साफ करी, संवर्ते छे एकठां करे छे, एकटां करी यानोने बहार लावी ते उपरना दुष्पोत्रो दूर करी मानो सम-सोमारी पर मांडकमंडित तदुचित मांडवी मंडित करी ज्यां वाहनाला खां आये यो आनी नवद वगेरेने नजरे जोद, साफ करी बहार खाची, उसेजित करी, उपरना दूर करी जोडे जोडी प्रशोधवष्टि (परोथो) भने प्रोि धरने एक साथ नियोजे छे पछी तेने वाट मार्ग उपर लावी ज्यां बलव्यापृत छे त्यां आवी तेनी आज्ञा पाछी आपी. त्यार बाद बलव्यापृत नगरगुप्तिककोटवाल ने बोला एम बोल्योः हे देवानुप्रिय चंपानगरीने बहार अने अंदर आणि बाबत् पूर्वोक कृषिकनी आहा प्रमाणे करायो, करावी मारी आज्ञा पाछी आपो. त्यार बाद ते कोटवाळ बलव्यापृतनो ए अर्थ आज्ञाए विनयपूर्वक प्रतिश्रवी चंपानगरीने बहार अने अंदर आसिक - ( यावत् ) करावी ज्यां बलव्यात छे त्यां आवी ते कोटवाळे तेनी आज्ञा पाछी आपी. त्यार बाद ते बलव्यापृत भंभसारपुत्र कूणिक राजाना सज्ज थयेल अभिषेक इतिने पोडा हस्ती, रथ अने प्रचर दोचावी परिचितुरंगिणीसेनाने, सुभद्रा प्रमुख देवीओ माटे उपस्थित एक एक मामने, अने अंदर अने बहार गंधवर्तिकाभूत करेली चंपानगरीने जुए छे, जोइ दृष्ट, तुष्ट, आनंदित चित्तयुक्त, प्रीतमन, अने उल्लसित चित्त थइ ज्यां भंभसारपुत्र कूणिक राजा छे, आनी जति करी एम बोल्यो देवानुप्रिय आपनुं अभिषेक हस्तिर तैयार के, घोडा, हाथी, रथ अने प्रवर योधाओधी फलित चतुरंगिणी सेना सन्नद्ध छे, सुभद्रा प्रमुख देवीओ माटे एक, एक, यात्राभिमुख जोडेल यानो उपस्थापित छे अने चंपानगरी अंदर अने बहार आि (याद) गंधर्तिभूत करेली के माटे हे देवाय हवे तसे श्रमण भगवंत महावीरने यादवा माठे नीको बार बाद से मेनसार पुत्र कृषिक राजा बलव्यापृतनो ए अर्थ सांभळी, निशमी; हृष्ट, तुष्ट, आनंदित चित्तवालो थई ज्यां अट्टनशाला ( व्यायाम गृह ) छे त्यां आवे छे, आवी अटनशालामां अनुप्रवेशी अनेक व्यायाम योग्य वामन ( कूद) व्यामर्दन मोना करना पडे घांत तो अने परिभ्रांत यो सतो प्रीयंक, दर्शक, मादक, दीयांसवर्धक सर्वेन्द्रम भने मात्र प्रल्हाद देवारा शतपाक अने सहयाक सुगंधादि अभ्यंगित भयो, अभ्यंगित बई, जेओना हाथना अपनी चर्मनां प्रतिपूर्ण सुकुमाल कोमल छे, एवा एक दक्ष प्राप्तार्थ, कुशल, नेपालि निपुण शिल्पगत अने अभ्यंगन, परिमर्दन उसनकरणमा पुरुष सुख माटे, मांस सुख माटे, चामडीना सुख माटे, रोमन सुखमारे चार प्रकारनी संवाहना-मदन-प संवाहित थयो सतो, परिश्रम अने खेद रहित थई, अट्टनशालाथी नीकळी, मज्जनघर तरफ आवी, मोतीना जाळीयावाळा, अभिराम, विचित्र मणिरत्नथी बद्ध कुट्टिम तळवाळा, रमणीय स्नान मंडपमां, विविध मणिरत्ननी कारीगरिथी विचित्र स्नानपीठमां सुखे बेठो बेसी वारंवार शुद्धोदक, गंधोदक, पुष्पोदक अने शुभोदक वडे कल्याणरूप प्रवर मज्जन विधि वडे स्नान कर्यु, त्यां बहु प्रकारनां सेंकडो कौतुको वडे कल्याणरूप प्रवर स्नाननी समाप्ति थया पछी पातळी सुकुमाळ गंधकाषायी शरीर लुंछवाना रुमाल - वडे अंगने साफ कर्यु. सरस सुरभि गोशीर्ष चंदन वडे गात्रने अनुलेप्य, अखंड, नव-हे पवित्र माता, वर्गक अने विलेपन कमी, मनि अने वर्गोंने पहेव, हार, अर्थहार, जसरी हार, हुमा अने मान कटिसूत्र वडे सारी शोभा करी, ग्रैवेयक- डोकनुं भूषण पहेर्यु, अंगुलीयक- वींटीओथी अने सुंदर अंगद वडे सारां आभरणो कर्या, उत्तम कटक अने
भने
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आनन-मुख उद्योतित
बरांसच्ध वर्मा, अधिक रूप सने सभी थवा मुद्रिकाओोषी अंगुली भी पीजी करी, मस्तकी हारोयी आच्छादित सा वक्षःस्थल कर्तुं प्रयमानावा परंतु सारं उत्तरीय कर्तु माता सवि कनक, सन वडे निमल महाई मोटाने योग्य नियुग पुरुषे बनावे, दीपतुं करे सुष्टि, विष्टि अगे राह पर बल पहे. बधारे
कृतविभूषित
न होय, तेम ते नरपति, धराता कोरंटक फुलनी माळावाळा छत्रसहित चार चामर वडे वीजित अंगवाळो, तेना दर्शनथी मंगल अने जय शब्द थये सानीनी नीळी अनेकन दंडनायक, राजा, ईश्वर, कोटवा मावि, कीबिक, इभ्य सेठ, सेनापति सार्थवाह, दून अने संधिपालो साथै संपरिवृत थयो जाणे धोळो महामेध न नीकळ्यो होय तेम ग्रहगणथी शोभता अने अंतरिक्षस्थ तारागणनी मध्यमां स्थित चंद्रनी पेठे प्रियदर्शन ते नरपति ज्यां बहारनी उपस्थानशाला छे त्यां आवी अंजन गिरिना शिखर जेवा हस्ती उपर चढ्यो, त्यार बाद अभिषेक हस्तिरत्न उपर चडता संसारपुत्र कृषिकराजानी पहेला आगत कम पूर्वक आठ आठ मंगल संत्रस्थित चर्या, १. स्वस्तिक १. श्रीवास, मेदावर्तमानरामपु ५. भद्रासन, ६. कलश, ७. मत्स्य, ८. दर्पण, त्यार बाद पूर्ण कलश अने भृंगारथी दिव्य, छत्र पताकावाळी, चामर सहित, देखवामां आनंद देनारी, आलोक दर्शनीय, वातथी चालती, उंची, गगनतलने अनुलिखती विजय वैजयंती धजा क्रमपूर्वक संप्रस्थित थई त्यार बाद वैडुर्य रत्नथी शोभतुं, विमल दंडवा, कोरं पुष्पनी मादाओवी उपशोभित, चंद्र मंडल, विमल आप पर मणि रत्ना पादपीठ का युगलबी समायुक्त, बहु किंकर अने कर्मकर पुरुष, तथा पदाति-पाळा पुरुषो थी परिक्षिप्त एवं प्रवर सिंहासन आगळ यथानुपूर्वीए संप्रस्थित थयुं. त्यार याद डीने प्रण करनारा माहो, चापमाहो, चामरमाही पायभाहो, पुस्तकमाहो, फलकप्राडो पीठो माहो हड़प्फ-हडफा - पानदानी -ना ग्रहण करनारा, आगळ क्रमपूर्वक संप्रस्थित थया. त्यार बाद घणा दंडवाळा, मुंडि, शिखावाळा, जटावाळा, पिच्छ-पीछा
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शतक १- प्रश्नोत्थान.
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