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२६६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह-~
शतक २.-उद्देशक ३. संठाणमेव' ति नारकसंस्थानं वाच्यम् , तत्र, ये आवलिकोपविष्टास्ते वृत्ताः, व्यस्राः, चतुरस्राश्च, इतरे तु नानासंस्थानाः. 'बाहल्ली ति नरकाणां बाहल्यं वाच्यम् , तच्च त्रीणि योजनसहस्राणि, कथम् ? अध एकम् , मध्ये शुषिरम् एकम् , उपरि च संकोच एकम् इति. 'विक्खंभ-परिक्खेवो' ति एतौ वाच्यौ, तत्र, संख्यातविस्तृतानां संख्यातयोजन आयामः, विष्कम्भः, परिक्षेपश्च. इतरेषां तु अन्यथा इति. तथा वर्णादयो वाच्याः, ते च अत्यन्तमनिष्टाः, इत्यादि बहु वक्तव्यं यावद् अयमुद्देशकान्तः. यदुत 'कि सव्वपाणा' इत्यादि. अस्य च एवं प्रयोगः-अस्यां रत्नप्रभायां त्रिंशन्नरकलक्षेषु किं सर्वे प्राणादय उत्पन्नपूर्वाः ? अत्रोत्तरम्-'असई ति असकृद् अनेकशः, इदं च वेलादयादावपि स्यात् , अतोऽत्यन्तबाहुल्यप्रतिपादनायाऽऽह,-'अदुव' ति अथवा 'अणंतक्खुत्तो' त्ति अनन्तकृत्वोऽनन्तवारान् .
भगवरसुधर्मस्वामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे द्वितीयशते तृतीय उद्देशके श्रीअभयदेवसूरिविरचितं विवरणं समाप्तम्. १. हवे त्रीजा उद्देशकनी शरुआत थाय छे अने बीजा तथा त्रीजा उद्देशकनो संबंध आ प्रमाणे छ:-'बीजा उद्देशकमां समुद्रात संबंधी हकीकत कही छे अने तेमां मारणांतिक समुद्धात विषे पण जणाव्युं छे. तो ते मारणांतिक समुद्धात द्वारा समवहत थएला केटलाक जीवो पृथिवीओमा उत्पन्न
थाय छे माटे ते पृथिवीओ संबंधी हकीकत आ उद्देशकमां कहेवी ए प्रसंगोपात्त छे' ए रीते बीजा अने त्रीजा उद्देशकनो संबंध छे. आ त्रीजा जीवामिगम सूत्र.
उद्देशकनुं प्रथम सूत्र आ छे:-['कइ णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ' इत्यादि.] जीवाभिगमसूत्रमा आवेला नारक संबंधी बीजा उद्देशकनी अर्थसंग्रहगाथा अहीं जणावी छे. ते आ छे:- ["पुढवी ओगाहित्ता निरया संठाणमेव बाहलं, विखंभ-परिक्खेवो वण्णो गंधो य फासो य."] सूत्रपुस्तकोमा अडधी गाथा (पूर्वार्ध) जलखी छे, कारण के बाकीना इष्ट अर्थों ' यावत् ' शब्दथी सूचव्या छे. ते गाथानो अर्थ आ छे:-'पृथिवी' एटले पृथिवीओ
कहेवी. ते आ रीतेः-'हे भगवन् । पृथिवीओ केटली कही छे ? हे गौतम ! पृथिवीओ सात कही छे. ते आ प्रमाणेः-रत्नप्रभा' इत्यादि. [ओगाहित्ता प्रथिवीमो.
निरयत्ति ] 'पृथिवीथी आगळ केटले दूर जता नारको रहे छे' ए वात कहेवी. ते आ रीतेः-एक लाख अने एंशी हजार योजन जाडी रत्नप्रमा नारको क्या !
पृथिवीमां नीचेना हजार योजन छोडी दइए त्यारे त्रीश लाख नरको आवे छे तथा उपर एक हजार योजन आगळ जइए त्यारे त्रीश लाख
नरको आवे छे अर्थात् रत्नप्रभा पृथिवीनी उपर अने नीचेना एक हजार योजन जेटला भागमां नरको नथी. ए प्रमाणे शर्कराप्रभा नारकोनो घाट
वगेरे पृथिवीभोमां जेम घटे तेम जाणवू. [ 'संठाणमेव 'त्ति ] नारकिओना शरीरनो घाट कहेवो. जे नारकिओ आवलिकामां आवेला छे तेओनो
घाट गोळ, त्रण खुणिओ अने चार खुणिओ छे तथा ते सिवायना बीजा नारकिओनो घाट अनेक प्रकारनो छे. ['बाहलं' ति] नरकोनी जाडाइ बाल्य
कहवी. ते आ छे:-त्रण हजार योजन नरकपृथिवी जाडी छे. ते केवी रीते? तो कहे छे के, नीचे एक हजार योजन, वचमा एक हजार योजन विकम-परिक्षेप.
शुषिर अने उपर एक हजार योजन संकुचित छे. [ 'विक्खंभ-परिक्खेवो' त्ति ] विष्कंभ अने परिक्षेप, ए बन्ने कहेवा. जे पृथिवीओ संख्याता
विस्तारवाळी छे तेनी लंबाइ, पहोळाइ अने घेरावो संख्यात योजन छे अने ते सिवायनी-बीजी-पृथिवीओनी लंबाइ वगेरे तेथी जूदी रीते छे. तथा सर्व प्राणों पूर्व नर- 'वर्ण' वगेरे नारकिमां कहेवा. ते वर्ण वगेरे धणा ज खराब होय छे. इत्यादि आ उद्देशकना छेडा सुधी घणुं कहेवा छे. [ 'किं सव्वपाणा' इत्यादि.] 'कमा गया। आ सूत्रनो प्रयोग आ रीते छ:-शुं सर्व जीवो, आ रत्नप्रभा पृथिवीना त्रीश लाख नरकोमा पूर्वे आवी गएला छे? अहीं उत्तर आ छे:
[असई 'ति] अनेकवार, बे, त्रणवारने पण अनेकवार' कहेवाय माटे अहीं अत्यंत बाहुल्य जणाववा माटे कहे छे के, [ 'अदुव 'त्ति] अथवा ['अणंतक्खुत्तो'त्ति] अनंतवार अर्थात् जीवो अनंतवार नारकिमा आवी गएला छे.
१.जैनोना जुनामां जुना ग्रंथो अंग' या 'उपांग' तरीके ओळखाय छे. आ 'जीवाभिगम' नामर्नु सूत्र पण एक 'उपांग' छे. जे ठेकाणे जे पदार्थं प्रधानपणुं राखतो होय ते ठेकाणे ते पदार्थ, लोकरूढिए 'अंग' तरीके ओळखाय छे अने ते पदार्थना संबंधी बीजा पदार्थोने उपांग-अंगना सहायकगणवामां आवे छे. जैनोना मुख्य बार शास्त्रो छे. ते 'अंग' कहेवाय छे अने तेने लगता बीजा केटलाक ग्रंथो 'उपांग' तरीके ओळखाय छे. 'स्थानांग' सूत्र नामर्नु एक शास्त्र छे, जे, बार अंगोमांनुं त्रीजं अंग छे. (जूओ पृ०९ अने ११ मांगें स्थानांग उपरतुं टिप्पण) ते अंगर्नु आ 'जीवाभिगम' नामर्नु उपांग छे. आ 'जीवाभिगम' नामर्नु उपांग कोइ एक अमुक व्यक्तिए ज रच्यु एम नथी, पण अनेक स्थविरोए मळीने तेनी संकलना करी होय तेम तेना मूळपाठ उपरथी स्पष्ट जणाय छे:__" इह खलु जिणमय, जिणाणुमयं, जिणाणुलोमं, जिणप्पणीतं, जिणप- "आ संसारमा जे पदार्थ जिने मानेल छे, तेने-जिनने-अनुमत छे, तेने रूविअं, जिणक्खायं, जिणाणुचिण्णं. जिणपण्णतं, जिणदेसिअं, जिणप्पसत्थं अनुकूळ छे, तेणे जेनुं प्रणयन कर्यु छे, प्ररूपण कर्यु छ, कथन कर्यु छे,
अणुचिंतिम तं सद्दहमाणा, तं पत्तियमाणा, तं तं रोएमाणा थेरा भगवंतो जेने तेणे अनुचर्यो छे, जणाव्यो छे, उपदेश्यो छे अने प्रशस्त गण्यो छे तेने ..नीवाजीवाभिगम णामज्झयणं पण्णवइंसु"-(श्रीजीवाभिगमसूत्र, क. आ. बुद्धिपूर्वक विचारीने तेमां श्रद्धा करता, प्रीति करता अने रुचि करता स्थविर
(वृद्ध साधु) भगवंतोए “जीवाजीवाभिगम नामनुं अध्ययन प्रसप्यु
छे-जणाव्युं छे"-(श्रीजीवाभिगमसूत्र, क• भा० पृ०५.) आ पाठ उपरथी एम पण जणाय छे के, आनुं नाम तो 'जीवाजीवाभिगम अध्ययन' छे. पण ते नामने टुंकुं करीने तेने 'जीवाभिगम' ए नामथी ओळखवामां आवे छे. अने 'अध्ययन' ने बदले 'सूत्र' शब्द प्रयोजाय छे. वळी ए टुंकुं नाम पण काइ अर्वाचीन नथी, कारण के ए टुंका नामनो उल्लेख श्रीभगवतीजी जेवा प्राचीन ग्रंथमा पण छे. ए 'जीवाभिगम' सूत्रमा जीव अने अजीव विषे तथा तेने लगती बीजी अनेक बाबतो उपर विवेचन छे. तेमां अनेक रीतिए जीवना बे प्रकार, प्रण प्रकार, चार प्रकार, पांच प्रकार, छ प्रकार, सात प्रकार, आठ प्रकार, नव प्रकार अने दश प्रकार युक्तिपूर्वक वर्णव्या छे. उपर जे जीवाभिगमसूत्रना नारक संबंधी बीजा उद्देशकनी साक्षी आपी छे ते बीजो उद्देशक, चार प्रकारना जीवोनुं प्ररूपण करता, नारकिओना प्ररूपण प्रसंगे जणान्यो छे भने ते बीजो उद्देशक (पृ. २४५ थी ३०९ सुधी क. आ.) मा छे तथा उपर जे संग्रह गाथा भापी छे ते,ते उद्देशकमां (पृ. ३०८ मां) छे:--अनु०
बेटारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् , दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपखी। अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्यो, दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिववर मारहा चाप्तमुख्यः ॥ १॥
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