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________________ २०२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक १.-उद्देशक ९. उदाहरण. न्तव्यानि, तद्यथाः-"उवास-वाय-घणउदहि-पुढवि-दीवा य सागरा वासा, नेरईयाई अस्थिय समया कम्माइं लेसाओ. दिट्टी-दसणनाणे सन्ना-सरीरा य जोग-उवओगे, दव्य-पएसा पज्जव तीया आगामि सव्वद्ध"त्ति. 'वेउब्विय-तेयाई पडुच्च त्ति नारका वैक्रिय-जसशरीरे प्रतीत्य गरुक-लघुका एव, यतो वैक्रिय-तैजसवर्गणात्मके ते, एताश्च गुरुलघुका एव. यदाह:-"ओरालिय-वे ब्विय आहारंग तेय गुरुलहुदव्व" ति. 'जीवं च कम्मणं च पडुच्च' त्ति जीवाऽपेक्षया, कार्मणशरीराऽपेक्षया च नारका अगुरुलघुका एव. जीवस्याऽरूपित्वेनाऽगुरुलघुत्वात् , कार्मणशरीरस्य च कार्मणवर्गणात्मकत्वात् , कार्मणवर्गणानां चाऽगुरुलघुत्वात्. आह च:-"कम्मंग-मण-भासाई एयाई अगुरुलहुआई" ति. १. आठमा उद्देशकने छेडे वीर्य संबंधी हकीकत कही छे. अने जीवो वीर्यथी भारेपणुं वगेरे पामे छे माटे हवे 'भारेपणुं' वगेरेनुं प्रतिपादन करवा तथा आगळ आवेली संग्रहगाथामा जे [ 'गुरुए'त्ति] ए पद कयुं छे, तेनुं प्रतिपादन करवा आ नवमो उद्देशक शरु थाय छे. अने तेमां सूत्र आ छे:गुरुत्व. [कहं गं' इत्यादि.]['गुरुअत्तं ति] मारेपणुं अर्थात् नीचे जवामा कारणभूत अने नठारां कर्मना उपचयरूप जे, ते 'भारेपणु' जाणवू. भारेपणाथी उलटुं ते हळवापणुं जाणवु. ['एवं आउलीकरेन्ति'त्ति] आ स्थळे जे 'एवं' शब्द मूक्यो छे तेनुं कारण ए छे के, ए प्रमाणे-पूर्वनी पेठे-अहीं पण पाठ कहेवो. जेमके; ['कह णं भंते ! जीवा संसारं आउलीकरेंति ? गोयमा ! पाणाइवाएणं' इत्यादि.] ए प्रमाणे नीचे पण समजवू. तेमा ['आउलीकरेंति' ति] कर्मवडे संसारने प्रचुर करे छे. [परित्तीकरेंति'त्ति] कर्मवडे संसारने ओछो करे छे. [ 'दीहीकरेंति' त्ति] संसारने लांबो-लांबा काळवाळो-करे छे. ['हस्सीक रेति' त्ति ] संसारने टुंको-टुंका काळवाळो-करे छे. ['अणुपरियटृति' ति] वारंवार संसारमा भमे छे. [ 'वीईवयंति'त्ति] संसारने ओळंगे छे. पिसत्था चार प्रशस्त. चत्तारित्ति] हळवापणुं, संसारने ओछो करवो, टुको करवो अने ओळंगवो, ए चार दंडक प्रशस्त छे. कारण के ते चारवानां मोक्षनां अंगरूप छे. चार बप्रशस्त. ['अप्यसत्था चत्तारि' ति] भारेपणुं, संसारने प्रचुर करवो, लांबो करवो, अने तेमा रखडवू, ए चार दंडक अप्रशस्त छे. कारण के ते चारवानां मोक्षनां अंगरूप नथी. गुरुत्व अने लघुत्वनो अधिकार होवाथी आ सूत्र कहे छः-['सत्तमेणं' इत्यादि.] आ स्थळे गुरु-भारे-अने लघु-हळवा-नी व्यवस्था आ निमय भने प्रमाणे छ:-"निश्चयनयनी अपेक्षाए सौथी भारे अने सौथी हळवं कोइ द्रव्य-वस्तु-नथी. पण व्यवहारनयनी अपेक्षाए बादर (स्थूल) स्कंधोमां सौथी मारेव्यवहार पणुं अने सौथी हळवापणुं रहे छ पण बीजामां ते नथी." "जे द्रव्यो चार स्पर्शवाळा होय छे अने जे द्रव्यो अरूपी होय छे ते बधा अगुरुलघु होय छे. तथा बाकीनां आठ स्पर्शवाळा जे द्रव्यो छे ते बधां गुरुलघु छे. एम निश्चयनयनुं मत छे" ['चउफास' त्ति] एटले सूक्ष्म परिमाणवाळां, ['अठ्ठफास'त्ति] बादर-स्थूल-मोटा. जे द्रव्य गुरुलघु होय छे ते रूपवाळु होय छे अने जे द्रव्य अगुरुलघु होय छे ते रूपवाळु होय छे अने रूप विनानु पण होय छे. व्यवहारथी तो चारे जातनां-गुरु, लघु, गुरुलघु अने अगुरुलघु-द्रव्यो होय छे. ते संबंधे आ प्रमाणे उदाहरणो छः-टेफु ए भारे-गुरु-वस्तु छे. कारण के तेनो नीचे जवानो स्वभाव छे. धूमाडो ए हळवो-लघु-पदार्थ छे. कारण के तेनो उंचे जवानो स्वभाव छे. वायु गुरुलघु पदार्थ छे, कारण के तेनो तीरच्छा जवानो स्वभाव छे. आकाश ए अगुरुलघु द्रव्य छे. कारण के तेनो तेवो स्वभाव छे. अवकाशांतर वगैरे संबंधेना ए सूत्रो आ गाथाने अनुसारे जाणवा. ते आ प्रमाणे:-"अवकाश, वायु, घनोदधि, पृथिवी, द्वीप, सागरो, क्षेत्रो, नैरयिकादि, अस्तिकाय-धर्मास्तिकायादि, समयो, कर्मों, लेश्या" "दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, संज्ञा, शरीर, योग, उपयोग, द्रव्य, प्रदेश, पर्यव, अतीतकाळ, आगामिकाळ अने सर्वकाळ." क्रिय भने तेजस. ['वेउन्विअ-तेयाई पड्डुच्च' त्ति] वैक्रिय अने तैजस शरीरनी अपेक्षाए नारको गुरुलघुको ज छे. कारण के ते बन्ने-वैक्रिय अने तैजस शरीर, वैक्रिय अने तैजस वर्गणाना बनेलां छे अने ते वर्गणाओ गुरुलघु ज छे. कयुं छे के, “औदारिक, वैक्रिय, आहारक अने तैजस; एनधी जीव भने कार्मण. वर्गणाओ गुरुलघु छे” ['जीवं च कम्मणं च पडुच्च' ति] जीव अने कार्मण शरीरनी अपेक्षाए नारको अगुरुलघुको ज छे. कारण के जीव अरूपी छे माटे अगुरुलघु छे तथा कार्मण शरीर, कार्मण वर्गणाओगें बनेलं छे अने कार्मण वर्गणाओ अगुरुलघु छे माटे कार्मण शरीर पण अगुरुलघु छे. कj छे के, "कार्मण, मन, अने भाषा-शब्द; ए बधी वर्गणाओ अगुरुलघु छे". . २. 'णाणत्तं जाणियव्वं सरीरेहिं ति यस्य यानि शरीराणि भवन्ति तस्य तानि ज्ञात्वाऽसुरादिसूत्राणि अध्येयानि इति हृदयम्, तत्र असुरादिदेवा नारकवद् वाच्याः. पृथिव्यादयस्तु औदारिक-तैजसे प्रतीत्य गुरुलघवः. जीवम् , कार्मणं च प्रतीत्याऽगुरुलघवः. वायवस्तु औदारिक-वैक्रिय-तैजसानि प्रतीत्य गुरुलघवः. एवं पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चोऽपि. मनुष्यास्तु औदारिक वैक्रिय-तैजसा-ऽऽहारकाणि प्रतीत्य इति. 'धम्मत्थिकाए' त्ति इह 'यावत्' करणात् 'अहम्मस्थिकाए, आगासस्थिकाए' त्ति दृश्यम्. 'चउत्थपएणं' ति एते 'अगुरुलहु' इत्यनेन पदेन वाच्याः. शेषाणां तु निषेधः कार्यः. धर्मास्तिकायादीनाम् अरूपितयाऽगुरुलधुत्वाद् इति. पुद्गलास्तिकायसूत्रे उत्तरं निश्चयनयाऽऽश्रयम्, एकान्तगुरुलघुनोस्तन्मतेनाऽभावात्. 'गुरुय-लहुयदव्वाई' ति औदारिकादीनि चत्वारि. 'अगुरुय-लहुयदव्याई ति कार्मणादीनि. 'समया' कम्माणि य चउत्थपएणं ति समया अमूर्ताः, कर्माणि च कार्मणवर्गणात्मकानि इति अगुरुलघुत्वम् एषाम्, 'दव्वलेस्सं पडुच्च तइयपएणं' ति द्रव्यतः कृष्णलेश्या औदारिकादिशरीरवर्णः, औदारिकादिकं च 'गुरुलघु' इति कृत्वाऽनेन तृतीयविकल्पेन व्यपदेश्या. भावलेश्या तु जीवपरिणतिः, तस्याश्चाऽमूर्तत्वाद् 'अगुरुलघु' इत्यनेन व्यपदेशः. इत्यत आह:-'भावलेस्सं पडुच्च चउस्थपएणं' ति 'दिवी-दसण' इत्यादि. दृष्टयादीनि जीवपर्यायत्वेनाऽगुरुलघुत्वाद् अगुरुलघुलक्षणेन चतुर्थपदेन वाच्यानि. अज्ञानपदं तु इह ज्ञानविपक्षत्वाद् अधीतम् , अन्यथा द्वारेषु ज्ञानपदमेव दृश्यते. 'हेदिल्ल' त्ति औदारिकादीनि, 'तइयपएणं' ति गुरुलघुपदेन, गुरुलघुवर्गणात्मकत्वात्. 'कम्मया चउत्थपएणं' ति अगुरुलघुद्रव्यात्मकत्वात् कार्मणशरीराणाम्. मनोयोग-वाग्योगौ चतुर्थपदेन वाच्यौ, तद्व्याणाम् अगुरुलघुत्वात्. काययोगः कार्मणवर्जस्तृतीयेन, गुरुलघुत्वात् तद्र्व्याणाम् इति. 'सव्वदव्व' इत्यादि. सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायाऽऽदीनि, १. जूओ पृ. ८ मुं:-अनु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004640
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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