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________________ शतक १.देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूप. १९१ सत्वाद् इति. ‘अंतकिरिय’त्ति निर्वाणम्, 'कप्पोववत्तिअ'त्ति कल्पेषु अनुत्तरविमानान्तदेवलोकेषु उपपत्तिर्या सा एव कल्पोपपत्तिका, इह च कल्यशब्दः सामान्येन एव वैमानिकदेवाऽऽनासाऽभिधायक इति एकान्तपण्डितद्वितीय स्थानवर्तित्वाद् बाडपण्डितस्य, भतो बालपण्डितसूत्रम्, तत्र च 'पाचपंडिए ण' ति श्रावकः, 'देसं उपरमइ' ति विमतिपरिणामाद्देशाद् उपरमते विरतो भवति, ततो देश स्थूळ प्राणातिपातादिकं प्रत्याख्याति - वर्जनीयतया प्रतिजानीते. १. सातमा उद्देशकने छेडे गर्भ संबंधी हकीकत कही छे अने गर्भायास आयुष्य कर्मनो उदय होय त्यारे ज संभवी शके छे, माटे हवे आयुष्य मनुष्य ये निरूपण करना तथा आदिमां कहेली संग्रह गाथामां जे [ 'बोले' चि] ए पद कं छेतुं विवेचन करया आ आठमो उद्देशक प्रारंभाय छे अने मां आदि सूत्र आ[मंतबाल' इत्यादि ] एकांतबाल एटले मिध्यादृष्टि जीव अथवा विरति विनानो जीव नहीं 'वाल' एट ज न सूकर्ता जे 'एकांतबाल' शब्द मूक्यो छे तेनुं कारण ए के, अहीं तद्दन बालक ( मिथ्यादृष्टि ) जीव लेवानो छे पण मिश्रदृष्टि जीव लेवानो नथी. जो 'बाल' एटलं जमूक्युं होत तो मिश्रदृष्टि जीव पण आवी जाय. शं० - बघा एकांतबालकोनुं एकांतबालकपणुं सरखुं होय छे तो पण कोइ एकांतबालक देव के शंका. मनुष्यनुं आयुष्य बांधे छे अने कोई एकांतबालक नरक के तिर्यचनुं आयुष्य बांधे छे, तेनुं शुं कारण ? समा० - आयुष्य बांधवानां कारणो जूदां जूदां समाधान. होय छे माटे एकांतवासको पण जूजूद आयुष्यो छे. जे एकांतमालक जीव मोटा आरंभादिवाकां कार्यों करे के अने असल मार्ग देखाढी लोकोने मार्गे चहाने के तथा एव न बीनां पारमय कार्यों करे छे ते विर्येच के नरकनुं आयुष्य मधि के अने जे एकांतमालकना कपायो ओछा होय से तथा जे अकामनिर्जरापगेरे वाली होय के ते, मनुष्य के देवनुं आयुष्य बांधे . माटे जमाल सर होय के तो पण अविरत सम्यदहि मनुष्य, देवनुंज आयुष्यांचे छे, पण मी आयुष्य बांधतो नथी. एकांतपंडित जीन एकांतबालक जीवनो प्रतिपक्षी के माटे हवे एकांतपंडित निषेि सूत्र हे छे के [ 'एततिए 'ति] एकांतपंडित एटले साधु ['मधुस्से' ति] एकांतपंडित जे आ 'मनुष्य' ए विशेषण छे ते मात्र सरूपसूचक छे. कारण के, एकांतपंडित कहेबाथी ज 'मनुष्य' ए अर्थ आवी जाय छे. तेनुं कारण ए के, मनुष्य सिवाय बीजो कोइ एकांतपंडित होय ए संभवतुं नथी-मनुष्य सिवाय बीजो कोइ सर्वविरत साधु दोइ शकतो नयी. [एतदिए मनुस्से आउवं सिय पकरेइ, सिय जो पकरे' ति] चार अनंतानुबंधी अने अण मोहनीय-सम्यक्त्वक खपी गया पी ले, (साधु) आयुष्यतो गयी अने तेनाखपमा पहेला तो बांधे मा न करे. छे, कदाच आयुष्य बांधे अने कदाच आयुष्य नभी बांधतो. ['केवलमेव दो गईओ पक्षायंति' चि] अहीं 'केवल' शब्दनो अर्थ सकल छे माटे ने गति साकल्यवडे ज-सकल एकांतपंडितोनी बे गतिओ केवलज्ञानिए जाणी छे. कारण के, तेओने बे गतिओ ज होय छे. [ 'अंतकिरिय' त्ति ] एटले निर्वाणमोक्ष . [ 'कप्पोववत्तिअ ' त्ति ] कल्प- अनुत्तर विमान-सुधीना देवलोकोमां जे उपपत्ति ते 'कल्पोपपत्ति' कहेवाय. अहीं मूकेलो 'कल्प' शब्द सामान्य प्रकारे वैमानिक बना रहेलोनो सूचक छे. एकांतपंडित पछी उतरती पदवीबाल बालपंडित के माटे हवे वाटपंडित विवे सूप कहे है। ['बालमंत्रिए पंक्ति 'ति ] बालपंडित एटले श्रावक. [ 'देसं उबरमइ' त्ति ] अमुक भागथी अटके छे-विरत थाय छे तेथी स्थूल हिंसादिकनो त्याग करे छे-ते स्थूल हिंसादिक छोडवा योग्य छे माटे तेने न करवानी प्रतिज्ञा करें छे. विशेष आयुष्य करे मृगघातक पुरुष वगेरे. २६४. प्र० - पैरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा, दहंसि वा, उदगांवा दर्पियंतिया, पलयंति या नृमंसि वा, गहणणंांसि वा गहणविदुग्गंसि वा, पव्त्रयांस वा, पव्वतविदुग्गंसि वा, वर्णांस वा, aणविदुग्गंसि वा मियवित्तीए, मियसंकप्पे, मियपणिहाणे, मियवहाए गंता 'एते मिए' त्ति काउं अण्णयरस्स मियस्स वहाए कूड - पासं उद्दाति, ततो णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए पत्ते ? २६४. उ० – गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे कच्छंसि वा, जाव-कूडपासं उद्दाइ, तावं च णं से पुरिसे सिय तिकिरिए, सिय चतुकिरिए, सिय पंच करिए. २६५. प्र० - सेकेणणं भंते ! एवं वुच्चति - 'सिय तिकिरिए, सिय चतुकिरिए, सिय पंचकरिए' ? Jain Education International २६४. प्र० - हे भगवन्! हरणोथी आजीविका चलावनार, हरणोनो शिकारी अने हरणोना शिकारमां सकालीन एवो कोई पुरुष हरणने मारवा माटे कच्छमां नदीना पाणीथी घेराएल झाडीवाळा स्थानमां, धरा तरफ, पाणीना वहेळामां, घास वगेरेना ढगलामां, गोळाकार नदीना वांका चुका भागमां, अंधाराबाळी जग्याए, जंगलमां, पर्वतना एक भागमा रहेला वनमां, पर्वतमां, डुंगराचाळा प्रदेशयां मना तथा अनेक वृक्षवाळा वनमां जड़ 'ए मृगो छे' एम करी कोइ एक मृगना वध माटे खाडा अने जळ रचे. तो हे भगवन्! ते पुरुष केटली किपावाळो कहेवाय ! २६४. उ०—हे गौतम! ते पुरुष कन्डम यावत्-र तो कदाच त्रण क्रियावालो, कदाच चार क्रियावाळो अने कदाच पांच क्रिया कहवाय. २६५. प्र० - हे भगवन् ! तेनुं शुं कारण के, ते पुरुष कदाच त्रण कियावालो, कदाच चार क्रियावालो भने कदाच पांच शि यावाळी कवाय ! १. जूओ पानुं ८ मुंः- अनु० २. अहीं बीजी विभक्तिनो अर्थ पांचमी विभक्ति जेवो करवो:- श्रीअभय ० १. मूलच्छ पुरुषो भगवन् कच्छे वा हदे वा उदके या इसके वा बलवा, भूमे या गहने वा गनदुर्गे वा पर्वते वा पर्यंतचा वने वा, वनविदुगं वा मृगवृत्तिक, मृगसंकल्पः, मृगप्रणिधानो मृगवधाय गत्वा 'एते मृगाः' इति कृत्वा अन्यतरस्य मृगस्य वधाय कूटपाशम् उद्दाति, ततो भगवन् । स पुरुषः कतिक्रियः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! यावत् च स पुरुषः कच्छे वा, यावत्-कूटपाशम् उद्ददाति तावच स पुरुषः स्यात् त्रिक्रियः, स्यात् चतुष्क्रियः स्यात् पचक्रियः तत् केनार्थेन भगवन् । एवम् उच्यते- ' स्यात् त्रिक्रियः स्यात् चतुष्क्रियः स्यात् पश्चक्रियः' ?:- अनु० , , , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org/
SR No.004640
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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