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अन्य.
शंका.
समाधान
श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक १.-उद्देशक ६. सामान्य प्रकारे कहेवू ते उचित पण छे. त्रस-हाली चाली शके तेवा प्राणिओ अने स्थावर-हाली चाली न शके तेवा जीवो-ए बन्ने प्रकारना जीवो पृथिवीने आधार रहेला छे. आ वचन पण प्रायिक छे. कारण के पृथिवी सिवाय पण जीवो आकाशने, पर्वतने अने विमानने आधारे रहेला छे. तथा शरीरादि पुद्गलरूप अजीवो जीवने आधार रहेला छे, कारण के तेओ जीवोमां स्थित छे. तथा जीवो कर्मने आधार रहेला छे, कारण के संसारि जीवोनो आधार अनुदय अवस्थामा रहेल कर्मपुद्गलना समुदाय उपर छे. बीजाओ तो कहे छे के, “जीवो कर्मने आधारे रहेला छे एटले जीवो नारकादि भावे रहेला छे." तथा अजीवोने जीवोए संघरेला छे, कारण के मनना अने भाषा वगेरेना पुद्गलो जीवोए संघरेला छे. शं०-'अजीवो जीवोने आधारे रहेला छे' तथा 'अजीवोने जीवोए संघरेला छे' ए बे वाक्यना अर्थमां शो भेद-तफावत-छे ? समा०-आगळना वाक्यमा आधार आधेय-भाव कयो छे. अने पाछळना वाक्यमा संग्राह्य-संग्राहक भाव कह्यो छे. ए प्रमाणे ए बे वाक्यमा भिन्नता छे. तथा पाछळना वाक्यमां आधार-आधेय भाव पण छे अने ते आ रीते छः-जे जेनुं संग्राह्य होय ते तेनुं आधेय पण होय छे. अर्थात् जेम, पूडलावडे तेल संग्रहाय छे तो ते तेल संग्राह्य पण छे अने आधेय पण छे. तेम अहीं पण समजवू. तथा जीवोने कर्मोए संघरेला छे, कारण के संसारि जीवो उदयप्राप्त कर्मने ताबे रहेला छे. वळी जे जेने वश होय ते तेमा रहेलं होय छे, जेम; घटना रूपादिगुणो घटने वश रहेला छे माटे ज ते घटमां रहेला छे. ए प्रमाणे अहीं पण आधार आधेय भाव जाणवो. [ से जैहानामएँ केइ' त्ति] कोइ एक देवदत्तादि नामवाळो पुरुष, [ 'बस्थिति] मसकने [आडोवेइ'त्ति] आटोपे-वायुवडे फुलावे. [ 'उप्पि-सिअं बंधइ'त्ति] उपर गांठ बांधे. अथवा ['उप्पिसि'त्ति] एटले उपर अने ['त' इति ] एटले ते मसकने. [ से आउयाए'त्ति] अप्काय-पाणी, ते वायुकायनी उपर. उपरपणुं व्यवहारथी पण होय, माटे कहे छे के, उपरने तळिये अर्थात् सौथी उपरना भागमां. जेम जलनो आधार वायु छे ए प्रमाणे आकाश अने घनवातादिनो पण परस्पर आधार-आधेय भाव समजवो. अने ते आधार-आधेय भाव सर्व पदोमा पहेला ज व्यक्त थइ चूक्यो छे. ['अस्थाह-मार-मपोरुसिअंसित्ति] अगाध अथवा तळिया विनानुं घणुं उंडं, माटे ज न तरी शकाय तेवू, अथवा 'अपार' एवं पाठांतर होवाथी अपार-पार विना, पुरुष जेटलु उंडं ते पौरुषेय अने तेवू नहीं (ते करतां वधारे उंडे) ते अपौरुषेय, एवा पाणीमां. ['एवं वा' इति.]
मसक,
८. लोकस्थित्यधिकाराद् एव इदमाहः— 'अस्थि णं' इत्यादि. अन्ये त्याहु:-"अजीवा जीवपइडिया' इत्यादेः पदचतुष्टयस्य भावनार्थम् इदमाहः-'अस्थि णं' इत्यादि". 'पोग्गले' ति कर्म-शरीरादिपुद्गलाः, 'अन्नमन्नबद्ध' त्ति अन्योन्यं जीवाः पुद्गलानाम् , पुद्गलाश्च जीवानां संबद्धा इत्यर्थः. कथं बद्धाः? इत्याह-'अन्नमन्नपट्ट' त्ति पूर्व स्पर्शनामात्रेणाऽन्योन्यं स्पृष्टाः, ततोऽन्योन्यं बद्धाः-गाढतरसंबद्धा इत्यर्थः. 'अन्नमन ओगाढ' त्ति परस्परेण लोलीभावं गताः, अन्योन्यं स्नेहप्रतिबद्धा इत्यत्र रागादिरूपः स्नेहः, यदाहः-"स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य रेणुना श्लिष्यते यथा, गात्रं राग-द्वेषक्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवति एवम्" इति. अत एव 'अन्नमनघडताए' त्ति अन्योन्यं घटाः समुदायो येषां तेऽन्योन्यघटाः, तद्भावस्तत्ता तया–अन्योन्यघटतया. 'हरिए सिय' त्ति हृदो नदः, स्याद् भवेत् , 'पुने' त्ति भृतो जलस्य, स च किश्चिद् न्यूनोऽपि व्यवहारतः स्यात्, अतश्चाह-'पुण्णप्पमाणे'त्ति पूर्णप्रमाणः-पूर्ण वा जलेनाऽऽत्मनो मानं यस्य स पूर्णात्ममानः. 'वोलट्टमाणे ति व्यपलोट्यन् , अतिजलभरणात् छद्यमानजल इत्यर्थः. 'वोसट्टमाणे ति जलप्राचुर्याद् एव विकसन् स्फारीभवन् वर्धमान ' इत्यर्थः. 'समभरघडताए' ति समो न विषमः, घटैकदेशम्-अनानितत्वेन भरो जलसमुदायो यत्र स समभरः, सर्वथा भृतो वा समभरः,
समशब्दस्य सर्वशब्दार्थत्वात् , समभरश्चासौ घटश्च इति समासः, समभरघट इव समभरघटः, तद्भावस्तत्ता तया-समभरघटतया-सर्वथा भृतघटाकारतया इत्यर्थः. 'अहे णं' ति 'अहे! शब्दोऽथार्थः. अथ शब्दश्चाऽऽनन्तर्यार्थः. 'ण' इति वाक्यालंकारे. 'महं' ति महतीम्, 'सयासवं ति आस्रवति-ईषत् क्षरति जलं यैस्ते आस्रवाः-सूक्ष्मरन्ध्राणि, सन्तो विद्यमानाः, सदा वा सर्वदा, शतसंख्या वा आस्रवा यस्यां सा सदाऽऽश्रवा, शताश्रवा वा, अतस्ताम्. एवं 'सयछिदं नवरम्-छिद्रं महत्तरं रन्ध्रम्. 'ओगाहेज' त्ति अवगाहयेत्-प्रवेशयेत्. 'आसवदारेहिं' ति आश्रवच्छिद्रः. 'आपूरमाणि' त्ति आपूर्यमाणा 'जलेन' इति शेषः. इह द्विवचनमाभीक्ष्ण्ये. 'पुना' इत्यादि प्राग्वत्. नवरम् - 'वोसट्टमाणा' इत्यादौ वृद्धैरयं विशेष उक्त:-"वोसट्टमाणा' भृता सती या तत्रैव निमजति सा उच्यते. 'समभरघडताए' त्ति हृदक्षिप्तसमभरघटवत्-हृदस्याऽधस्त्योदकेन सह तिष्ठति इत्यर्थः. यथा नौश्च, हृदोदकं चाऽन्योन्याऽवगाहेन वर्तते" एवम् जीवाश्च, पुद्गलाश्च इति भावना.
८. लोकनी स्थितिनो ज अधिकार होवाथी आ सूत्र कहे छः-'अत्थि णं' इत्यादि.] बीजाओ तो कहे छे के, "अजीवा जीवपइटिआ' इत्यादि अन्योन्य पदादि.. चार पदनी भावना माटे आ ['अस्थि ण' इत्यादि.] सूत्र कधुं छे"..[ 'पोग्गले'त्ति ] कर्मना अने शरीर वगेरेना पुद्गलो, ['अन्नमन्नबद्ध' ति] अन्योन्य
बद्ध-जीवो पुद्गलोनी साथे अने पुद्गलो जीवोनी साथे एम परस्पर संबद्ध, केवी रीते बद्ध छे ? तो कहे छे के, [ 'अन्नमन्नपुट्ठा' इति] पूर्वे मात्र स्पर्शथीज अन्योन्यस्पृष्ट हता अने पछी अन्योन्यबद्ध थया-खून संबद्ध थया, ['अन्नमन्नमोगाढ'त्ति] परस्पर एकमेक थएला, परस्पर स्नेहथी प्रतिबद्ध थएला, अहीं
१. 'से' एटले ते. २. 'यथा' ए शब्द दृष्टांतनो सूचक छ-३. 'नाम' ए शब्द संभावनानो योधक छे. ४. 'ए' वाक्यमा अलंकार भूत छे. ५. 'सि' धातु बंधन अर्थमा छे अने तेनाथी भाव के कर्म अर्थमा 'क्त' प्रत्यय लाववाथी उपर प्रमाणे अर्थ थाय छे. ६. वहीं 'म' अलाक्षणिक छे भने मा
श्रणे शब्दोनो कर्मधारय समास करवो. ७. 'वा' शब्द बीजा उदाहरणनो सूचक छ:-श्रीअभय. Jain Education International
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