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________________ ना मणुओं. शतक १.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, १६५ अने तीरले स्पर्श छे' कारण के ऊर्धादि दिशाओमां लोकांत अने अलोकांत होय छे. 'तेने आदिमां, वचमां अने अंते स्पर्शे छे' ते केवी रीते? तो कहे छ के, नीचेना, तीरछा अने उंचा लोकप्रांतोनी आदिपणे, वचलापणे अने अंतपणे कल्पना करवाथी पूर्व प्रमाणे थाय छे. 'तेने भावि.. पोताना विषयमा स्पर्शे छेपोताना विषयमा एटले स्पृष्ट अने अवगाढादिमां, पण पोताना अविषयमां-अस्पृष्टादिमां-नहीं. 'तेने क्रमपूर्वक स्पर्शे क्रमः है। क्रम एटले अहीं प्रथम स्थानमा लोकांत अने त्यार पछी बीजा स्थानमा अलोकांत, ए प्रमाणे अवस्थानपणे स्पर्श छ, जो एम न करवामा आवे तो स्पर्शना ज थाय नहीं. 'तेने छए दिशामां परों छे' कारण के लोकांतने पडखे चारे बाजु अलोकांत छे. आ स्थळे खूणाओनी स्पर्शना नथी. कारण के, दिशाओनुं प्रमाण लोकना विष्कम जेटलुं छे. अने विदिशाओ लोकना परिहारपूर्वक रहे छे. एज प्रमाणे द्वीपांत अने सागरांतादि सूत्रोमां पण 'स्पृष्ट' वगेरे पदोनी भावना करवी. विशेष ए के, द्वीपांत अने सागरांतादि सूत्रमा ['छदिसिं'] ए सूत्रनी भावना-विचारआ प्रमाणे करवीः-द्वीपो अने समुद्रो हजार योजन अवगाढ होय छे तेथी द्वीप तथा समुद्रना उपरना अने हेठळना. प्रदेशोने आश्री ऊर्ध्ववि- दीपनो गो. शानी अने अधोदिशानी स्पर्शना, कहेवी. पूर्वादि दिशाओनी स्पर्शना तो प्रतीत ज छे. कारण के तेओर्नु (प्रदेशोनु) अवस्थान चारे बाजु छे. [उदंते पोयंत'ति] नदी वगेरेना पाणीनो छेडो नावना अंतने स्पर्शे छे. अहीं पण उंचाइनी अपेक्षाए ऊर्ध्व दिशानी स्पर्शना जाणवी. अथवा जलमां निमजन पाणीनो छेडो. थया पछी उंचाइनी अपेक्षाए ते स्पर्शना जाणवी. ['छिदंते दूसतं ति] छिद्रनो अंत वस्त्रना अंतने स्पर्शे छे. अहीं पण वस्त्रनी उंचाइनी अपेक्षाए काणानो छेडो. छ ए दिशाना स्पर्शनी भावना करवी. अथवा कांबळरूप वस्त्रनी पोटलिमां तेनी वच्चे उत्पन्न थएल कोइ जीवे खावाथी पडेल (तेना) वचला काणानी अपेक्षाए लोकांत सूत्रनी पेठे छ ए दिशाना स्पर्शनी भावना करवी. ['छायंते आयवंत' ति] अहीं छायाना भेदथी छ दिशानी भावना छायानो छेडो. आ प्रमाणे करवीः-आतपमा आकाशमा उडता पक्षि वगेरे द्रव्यनी जे छाया, अने तेनो जे अंत ते छायानो अंत-ते, आतपना अंतने चारे दिशामा स्पर्श छे. तथा ते ज छायानी उंचाइ जमीनथी मांडी ते द्रव्य सुधीनी छे. तेथी छायानो अंत आतपना अंतने उंचे अने नीचे स्पर्शे छे. अथवा हवेलीनी अने वरंडी वगैरेनी भींत उपरथी उतरती के चडती जे छाया, तेनो अंत आतपना अंतने उंचे अने नीचे स्पर्श छे. एम भावना करवी. अथवा पुद्गलोर्नु असंख्येय प्रदेशोमां अवगाहिपणुं होय छे तेथी ते ज छाया अने आतपने उचाइ होवाथी तेनी उंचाइ अने प्रकाश भने छार नीचाइनो विभाग करवो. अने तेथी छायानो अंत आतपना अंतने उंचे अने नीचे स्पर्शे छे. क्रियाविचार. २०६. प्र०—अस्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाए णं किरिया । २०६. प्र०—हे भगवन् ! जीवो द्वारा प्राणातिपात क्रिया कज्जइ? कराय छे? २०६. उ०—हंता, अस्थि. २०६. उ०—हा, कराय छे. २०७. प्र०-सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ ? अपुट्ठा कज्जइ ? २०७. प्र०-हे भगवन्! जे क्रिया कराय छे ते शुं स्पृष्ट छ ? के अस्पृष्ट छे? २०७. उ०---जाव-निव्वाघाएणं छद्दिसि, वाघायं पड़च्च सिय २०७. उ०—हे गौतम ! यावत्-निर्व्याघातवडे छ ए दिशाने, तिदिसिं, सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसिं. व्याघातने आश्रीने कदाच त्रण दिशाने, कदाच चार दिशाने अने कदाच पांच दिशाने स्पर्शे छे.. २०८. प्र०-सा भंते । किं कडा कज्जइ ? अकडा कज्जइ ? २०८. प्र०-हे भगवन् ! जे क्रिया कराय छे ते शुं कृत छे ! के अकृत छे ! २०८. उ०-गोयमा ! कडा कज्जइ, नो अकडा कज्जइ. २०८. उ०—हे गौतम! ते क्रिया कृत छे. पण अकृत नथी. २०९. प्र०-सा भंते ! किं अत्तकडा कज्जइ ? परकडा २०९. प्र. हे भगवन् ! जे क्रिया कराय छे ते शुं आत्मकृत कज्जइ ? तदुभयकडा कज्जइ ? छ ? परकृतं छे? के उभयकृत छे ! २०९. उ०—गोयमा ! अत्तकडा कज्जइ, णो परकडा कज्जइ, २०९. उ०—हे गौतम ! ते क्रिया आत्मकृत छे. पण परकृत 'नो तदुभयकडा कज्जइ. के तदुभयकृत नथी. २१०. प्र०-सा भंते ! किं आणुपुब्धि कडा कज्जइ ? अणा- २१०. प्र०—हे भगवन् ! जे क्रिया कराय छे ते अनुक्रमगुपुरि कडा कज्जइ ? पूर्वक कृत छ ? के अनुक्रम सिवाय कृत छे ? .२१०. उ०—गोयमा! आणुपुब्बि कडा कज्जइ, णो २१०. उ०—हे गौतम! ते अनुक्रमपूर्वक कृत छे. पण अनुअणाणुपुचि कडा कज्जइ. जा य कडा कज्जइ, जा य कजिस्सइ क्रम सिवाय कृत नथी. वळी जे कृत क्रिया कराय छे अने कराशे ते सव्वा सा आणुपुश्विकडा, णो अणाणपविकड त्ति वत्तव्वं सिया. बधी अनुक्रमपूर्वक कृत छे.पण अनुक्रम सिवाय कृत नथी एम कहेवाय. १. मूलच्छायाः-अस्ति भगवन् ! जीवैः प्राणातिपातः क्रिया क्रियते ? हन्त, अस्ति. सा भगवन् ! कि स्पृष्टा क्रियते, अस्पृष्टा क्रियते ? यावत्-नियाघातेन षड्दिशम् , व्याघातं प्रतील स्यात् त्रिदिशम् , स्यात् चतुर्दिशम् , स्यात् पञ्चदिशम. सा भगवन् ! किं कृता क्रियते, अकृता क्रियते ? गौतम | कृता क्रियते, नो अकृता क्रियते. साभगवन् ! किम् आत्मकृता क्रियते, परकृता क्रियते. तदुभयकृता क्रियते ? गीतमा आत्मकृता क्रियते, नो परकृता क्रियते, नो तदुभयकृता क्रियते. सा भगवन् ! किम् आनुपूर्वी कृता क्रियते, अनानुपूर्वी कृता क्रियते. गौतम ! आनुपूर्वी कृता क्रियते, नो अनानुपूर्वी कृता क्रियते. या.च कृता क्रियते, या च करिष्यते सर्वा सा आनुपूर्वीकृता,'नो अनानुपूर्वीकृता इति वक्तव्यं स्यात:-अनु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004640
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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