SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शतक १.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, .१४५ स्थानादीनि दश वस्तूनि इहोदेशके विचारयितव्यानि इति गाथासमासार्थः. विस्तरार्थं तु सूत्रकारः स्वयमेव वक्ष्यतीति. तत्र रत्नप्रभापृथिव्या स्थितिस्थानानि तावत् प्ररूपयन्नाहः-'इमीसे थे' इत्यादि व्यक्तम्, नवरम्-'एगमेगंसि निरयावासंसि'त्ति प्रतिनारकावासमित्यर्थः. 'ठितीद्वाण' ति आयषो विभागाः, 'असंखेज'त्ति संख्यातीतानि, कथं ! प्रथमपृथिव्यपेक्षया जघन्या स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि, उत्कृष्टा तु सागरोपमम् . एतस्यां चैकैकसमयवृद्ध्याऽसंख्येयानि स्थितिस्थानानि भवन्ति, असंख्येयत्वात् सागरोपमसमयानाम्. इत्येवं नरकावासाऽपेक्षयाऽप्यसंख्येयान्येव तानि. केवलं तेषु जघन्योत्कृष्टविभागो ग्रन्थान्तरादवसेयः, यथा-प्रथमप्रस्तटनरकेपु जघन्या स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि, उत्कृष्टा तु नवतिः सहस्रम्-इति. एतदेव दर्शयन्नाहः-'जहणिया ठिती' इत्यादि. जघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्रादिका इत्येकं स्थितिस्थानम्, तच्च प्रतिनरकं भिनरूपम् , सा एव समयाधिकेति द्वितीयम् , इदमपि विचित्रम् , एवं यावदसंख्येयसमयाधिका सा. सर्वान्तिमस्थितिस्थानदर्शनायाऽऽहः-'तप्पाउनकोसिया त्ति उत्कृष्टाऽसावनेकविधेति विशिष्यते, तस्य विवक्षितनरकावासस्य प्रायोग्या उचिता, उत्कर्षिका तत्प्रायोग्योत्कर्षिका, इत्यपरं स्थितिस्थानम् , इदमपि विचित्रम् , विचित्रत्वादुकर्षस्थितेरिति. एवं स्थितिस्थानानि प्ररूप्य तेष्वेव क्रोधाधुपयुक्तत्वाद् नारकाणां विभागेन दर्शयन्निदमाहः-'इमीसे णं' इत्यादि. 'जहनियाए ठिईए वट्टमाण' त्ति या यत्र नरकावासे जघन्या तस्यां वर्तमानाः किं कोहोवउत्ता' इत्यादिप्रश्ने 'सव्वे वि' इत्यादि उत्तरम्. तत्र च प्रतिनरकं जघन्यस्थितिकानां सदैव भावात् , तेषु च क्रोधोपयुक्तानां बहुत्वात् सप्तविंशतिर्भङ्गकाः. एकादिसंख्यातसमयाधिकाऽजघन्यस्थितिकानां तु कादाचित्कत्वात् , तेषु च क्रोधाधुपयुक्तानामेकत्वानेकत्वसंभवाद अशीतिर्भङ्गकाः. ३. हवे चालु उद्देशकना अर्थनो संग्रह करनारी गाथा कहे छे:-['पुढवी' इत्यादि.] पृथिवी एटले पृथिवीओमां, 'पृथिवी' ए निर्देश बीजा अर्थने संग्रह जाणवानी निशानीरूप-उपलक्षणरूप-होवाथी तेनो अर्थ आ प्रमाणे समजवो-पृथिव्यादिक जीवावासोमा ['ठिईत्ति स्थितिस्थानो कहेबां. [एवं . ओगाहणे'त्ति] अवगाहनास्थानो. शरीरादि पदो तो स्पष्ट ज छे. ए प्रमाणे स्थितिस्थान वगेरे दश वस्तु संबंधे आ उद्देशकमां विचार करवानो छे. पूर्वोक्त गाथानो आ संक्षिप्त अर्थ छे. ते गाथाना विस्तीर्ण अर्थने तो ग्रंथकार पोतानी जाणे ज कहेशे. तेमां सौथी प्रथम रत्नप्रभा पृथिवीमां स्थितिस्थानोने निरूपया कहे छे के:-['इमीसे णं' इत्यादि.] ए सूत्र व्यक्त छे. विशेष आ छे के, । 'एगमेगंसि निरयावासंसित्ति] अर्थात् एक एक नरकाबासे, ठितिठ्ठाण'त्ति] स्थिति-आयुष्य, स्थान-विभाग अर्थात् स्थितिस्थानो एटले आयुष्यना विभागो, [ 'असंखेजत्ति] असंख्येय छे. ते केवी स्थितिस्थान, रीते ? तो कहे छे के, प्रथम पृथिवीनी अपेक्षाए थोडामां थोडी आवरदा दस हजार वर्षनी होय छे अने वधारेमा वधारे आवरदा सागरोपम सुधीनी होय छे. हवे ए थोडामां थोडी स्थितिमां-उमरमां-एक एक समय वधारीए तो ए रत्नप्रभा पृथिवीमा आवरदाना असंख्येय विभाग थाय छे. जेम के; कोइ जीवनी दस हजार वर्षनी आवरदा, कोइनी दस हजार वर्ष अने एक समय वधारे, कोइनी दस हजार वर्ष अने बे समय वधारे, एम एक एक समय वधारीने सागरोपम सुधी पहोंचाडवू. अने ए प्रकारे रत्नप्रभा पृथिवीमा आवरदाना असंख्येय विभाग थइ शके छे. कारण के सागरोपमना समयो असंख्येय छे. ए प्रमाणे नरकावासोनी अपेक्षाए पण ते स्थितिस्थानो असंख्येय छे. मात्र ते नरकावासो विषेनो जघन्यता अने उत्कृष्टता संबंधी विचार बीजा ग्रंथथी जाणवो. जेम के पहेला पाथडामा रहेल नरकावासोमां जघन्य स्थिति दस हजार वर्षदी अने उत्कृष्ट स्थिति नेवु हजार वर्षनी छे. ए ज वातने दर्शावता कहे छे केः-['जहणिया ठिती' इत्यादि.] ओछामा ओछी स्थिति दस हजार वर्षनी छे. ए एक स्थितिस्थान छे. अने ते स्थितिस्थान प्रत्येक नरके भिन्न भिन्न छे. ते ओछामा ओछी स्थितिमां एक समय वधारीए तो ते बीजुं स्थितिस्थान कहेवाय, अने ए पण विचित्र छे. ए प्रमाणे ते ओछामा ओछी स्थितिमां यावत् असंख्येय समय वधारवा. हवे सौथी छेल्लुं स्थितिस्थान देखाडवा कहे छे केः-['तप्पाउग्गुक्कोसित्ति] ए उत्कृष्ट स्थिति अनेक प्रकारनी छे माटे तेने विशेषणद्वारा जगावे छे के, ते उत्कृष्ट स्थिति तत्प्रायोग्य होवी जोइए. तत्प्रायोग्य एटले ते विवक्षित नरकावासने योग्य-उचित-एवी उत्कृष्ट स्थिति ते 'तत्प्रायोग्योत्कृष्टस्थिति' कहेवाय. ए एक बीजु स्थितिस्थान छे अने ते पण विचित्र छे. कारण के उत्कृष्ट स्थिति विचित्र होय छे. ए प्रमाणे स्थितिस्थानोनुं निरूपण करी तेमां ज रहेला क्रोधादि उपयोगबाळा नारकोनो विभागपूर्वक देखाड करतां आ सूत्र कहे छे:-[इमीसे गं' इत्यादि.] [ 'जहन्नियाए ठिईए वट्टमाणत्ति ] जे नरकावासमा ओछामा ओछी जेटली स्थिति होय तेमां वर्तताओछामा ओछी आवरदावाळा ['किं कोहोवउत्ता' इत्यादि.] शुं क्रोधोपयुक्त छे ? इत्यादि प्रश्न छे. अने तेनो उत्तर आ छे के:--[ 'सव्वे वि' इत्यादि.] क्रोधोपयुक्तादि. दरेक नरके ओछामा ओछी उमरवाळा नैरयिको हमेशा ज होय छे. अने तेमां पणं क्रोधोपयुक्त नैरयिको घणा होय छे माटे ते संबंधे सत्तावीश भांगा जाणवा. तथा एक, बे के त्रणथी मांडी संख्यात समयना वधारावाळी अजघन्य स्थितिना नैरयिको कोइ वखत ज होय छे अने तेम होवाथी तेमां क्रोधादि उपयुक्त नैरयिकोनी संख्या एक अने अनेक होय छे. माटे ते संबंधे एंशी भांगा समजवा. १. एकेन्द्रियेषु तु सर्वकषायोपयुक्तानां प्रत्येकं बहूनां भावादभङ्गकम् . आह चः-"संभवइ जहिं विरहो असीई भंगा तहिं करेज्जाहि, जहियं न होई विरहो अभंगयं, सत्तवीसा वा." अयं च तत्सत्ताऽपेक्षो विरहो द्रष्टव्यः, न तूत्पादापेक्षः, यतो रत्नप्रभायां चतुर्विशतिमुहूर्त उत्पादविरहकाल उक्तः, ततश्च यत्र सप्तविंशतिर्भङ्गका उच्यन्ते तत्रापि विरहभावादशीतिः प्राप्नोति, सप्तविंशतेश्चाभाव एवेति. तत्र 'सव्वे वि ताव होज्जा कोहोवउत्त'त्ति प्रतिनरकं स्वकीयस्वकीयस्थित्यपेक्षया जघन्यस्थितिकानां नारकाणां सदैव बहूनां सद्भावात् , नारकभवस्य च १. आ शब्दनी सातमी विभक्ति लोपाएली छे, माटे तेनो सातमी विभक्ति जेवो अर्थ करवो. २. आ शब्दनो 'स्थितिस्थान' अर्थ करवो. कारण के सूत्र तो सूचक ज होय छे. माटे अहीं 'स्थिति' एटलं टुंकुं मूक्युं छे. ३. एकारांत पद पहेली विभक्तिवाळु जाणवूः-धीअभयदेव. १. प्र. छायाः-संभवति यत्र विरहः, अशीति भनान् तत्र कुर्यात् , यत्र न भवति विरहः (तत्र) अभङ्गाकम् , सप्तविंशतिवाः-अनु.. १९ भ.सू. Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004640
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherDadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy