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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक १.-उद्देशक ३.
रयति, तस्याऽतीतत्वात्-अतीतस्य चाऽसत्त्वाद्-असतश्चानुदीरणीयत्वादिति. इह च यद्यपि उदीरणा दिषु काल-स्वभावादीनां कारणत्वमस्ति, तथापि प्राधान्येन पुरुषवीर्यस्यैव कारणत्वमुपदर्शयन्नाहः-'जं तं' इत्यादि व्यक्तम्. नवरम्-'उत्थानादिना उदीरयति' इत्युक्तम् , तत्र च यदापन्नं तदाहः-'एवं सइ'त्ति एवमुत्थानादिसाध्ये उदीरणे सतीत्यर्थः. शेषं तथैव. काङ्खामोहनीयस्य उदीरणा उक्ता. अथ तस्यैवोपशमनमाऽऽहः-से गुण' इत्यादि. उपशमनं मोहनीयस्यैव, यदाहः-"मोहस्सेपोवसमो, खओवसमो चउण्हं घाईणं, उदय-क्खय-परिणामा अट्ठण्ह वि होति कम्माणे". उपशमश्च उदीरणस्य क्षयः, अनुदीर्णस्य च विपाकतः, प्रदेशतश्चाऽननुभवनम्-सर्वथैव विष्कम्भितोदयत्वमित्यर्थः. अयं चानादिमिथ्यादृष्टेरौपशमिकसम्यक्त्वस्य लाभे, उपशमश्रेणिगतस्य चेति. 'अणुदिनं उवसामेति'त्ति उदीरणस्य त्ववश्यंवेदनादुपशमनाsभाव इति. उदीर्ण सद् वेद्यते इति वेदनसूत्रम्, तत्र 'उदिनं वेएइ'त्ति अनुदीर्णस्य वेदनाऽभावात्, अथाऽनुदीर्णमपि वेदयति तर्हि उदी
गयोः को विशेषः स्यादिति ! वेदितं सन्निर्जीयते इति निर्जरासूत्रम्. तत्र 'उदयअणंतरपच्छाकडं'ति उदयेनानन्तरसमये यत् पश्चास्कृतम्-अतीततां गमितं तत् तथा, तद् निर्जरयति प्रदेशेभ्यः शातयति नाऽन्यत्, अननुभूतरसत्वादिति. उदीरणो-पशम-वेदना-निर्जरणसूत्रोक्तार्थसंग्रहगाथा:-"तैइएण उदीरेंति, उवसामंति य पुणो वि बीएणं, वेइंति निज्जरंति य पढमचउत्थेहिं सव्वे वि."
शंका, समाधान.
शंका, समाधान.
उदीरणामन्य.
८. हवे उदीरणाने आश्रीने ज कहे छे केः-['जं तं भंते !' इत्यादि] ए सूत्र व्यक्त छे. विशेष आ छे केः-शंका-जेम मूळकारे मूळमा जितं अप्पणा चेव उदीरेइ, अप्पणा चेव गरहेइ, अप्पणा चेव संवरेइ, तं किं उदिण्णं उदीरेइ, अणुदिन्नं उदीरेइ, अणुदिन्नं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेइ, उदयाणंतरपच्छाकडं कम्मं उदीरेइ.] आ सूत्र लल्युं छे तेम आ [ 'तं किं उदिणं गरहेइ, उदिणं संवरेइ'] सूत्र पण केम न लख्यु ? अर्थात् 'उदीर्ण' साथे 'उदीरेइ' ए प्रथम पद ज जोड्युं पण बाकीना 'गरहेइ' अने संवरेइ' ए बे पद केम न जोड्यां ? समा०-उदीर्ण, अनुदीर्ण, अनुदीर्ण, तथा उदीरणाभव्य अने उदयानंतरपश्चात्कृत ए चार विशेषणमा उदीरणाने लइने ज विशेषनो सद्भाव छे, माटे ए चारे साथे 'उदीरेइ' ए क्रियापद जोड्युं छे पण ए चारे विशेषणमांथी एक पण विशेषणनो 'संवरेइ' के 'गरहेइ' ए बन्ने क्रियापद साथे संबंध नथी. माटे ते बन्ने क्रियापदो ते चार विशेषण साथे जोड्यां नथी. शंकाः-ज्यारे उदीरणा साथे 'गरहेइ' के 'संवरेइ' ए बे क्रियाओनो काइ संबंध नथी तो आगळ कहेल उद्देशक सूत्रमा 'उदीरेइ' 'गरहेइ' अने 'संवरेइ' ए त्रणे क्रियापदो शा माटे साथे मूक्यां ? मात्र एकलं 'उदीरेइ' ज क्रियापद मूक, हतुं. समाः-जो के पूर्वोक्त शंका समुचित छे. तो पण 'गरहेइ' अने 'संवरेइ' ए बे क्रियापदो 'उदीरई' साथे मूक्यां छे तेनुं कारण आ छे:-गर्हण अने संवरण ए बन्ने उदीरणाना साधन छे एम जणाववा माटे पूर्वोक्त प्रकारे उल्लेख कर्यो छे. ए प्रमाणे सर्वत्र पण समजवू. उत्तर (जवाब) सूत्रना व्याख्यानथी प्रश्ननो अर्थ समजवो. तेमां ['नो उदिणं उदी रेइ'त्ति] उदीर्णने उदीरतो नथी. कारण के ते उदीर्ण-उदीरेल-ज छे अने उदीर्णनु पण फरीथी उदीरण करवाथी उदीरणानो पार आवशे नहीं. ['नो अणुदिन्नं उदीरेइ'त्ति] अनुदीर्णने उदीरतो नथी, अर्थात् जे कर्मनी उदीरणा घणी मोडी थवानी छे तथा जे कर्मनी उदीरणा भविष्यमा थवानी नथी ते अनुदीर्ण कर्म संबंधी उदीरणा वर्तमान के भविष्यत्काळमा होइ शकती नधी. ['अणुदिन्नं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेइ'त्ति] जो के स्वरूपथी अनुदीर्ण छे तो पण तुरतमा ज जे कर्म उदीरणाने योग्य होय ते कर्म 'उदीरणाभविक' कहेवाय अने तेने उदीरे छे. कारण के ते कर्म विशिष्ट योग्यताने प्राप्त छे. 'उदीरणाभविक' शब्दनो अर्थ आ छः-थनाएं होय ते 'भविक' कहेवाय अने जेनी उदीरणा थनारी होय ते 'उदीरणाभविक' कहेवाय. अथवा जे कर्म उदीरणाने योग्य होय ते 'उदीरणाभव्य' कहेवाय. ['नो उदयाणंतरपच्छाकडं'ति] जे कर्म उदयमा आवी गएलं होय तेने पण उदीरतो नथी. कारण के ते अतीतरूप छे अने अतीतरूप वस्तु असद्रूप होवाथी उदीरणीय होती नथी. जो के अहीं उदीरणादिक कार्योमां काळ तथा स्वभाव वगेरेनी कारणता होय छे तो पण प्रधानपणे तो तेमां जीवनुं वीर्य ज कारणरूप छे. ए वातने दर्शावता ग्रंथकार कहे छे केः-['जं तं' इत्यादि] ए सूत्र स्पष्ट छ. विशेष ए के, 'उत्थानादिवडे उदीरे छे' एम कहेवाधी जे सार आव्यो ते जणावे छे:-['एवं सइ'त्ति] ज्यारे उदीरण उत्थानादिथी साध्य छे त्यारे. बाकी बधुं तेज प्रकारे समजवू. अत्यार सुधी कांक्षामोहनीय कर्मनी उदीरणा कही, हवे ते ज कर्मना उपशमनने कहे छे केः-[ से गूणं' इत्यादि] उपशमन तो मोहनीयर्नु ज होय छे. कयुं छे के:-"उपशम तो मोहनो ज होय छे अने चार घाती कर्मनो क्षयोपशम होय छे तथा आठे कर्मनो उदय, क्षय अने परिणाम होय छे.” 'उपशम' शब्दनो अर्थ आ छेः उदीर्ण कर्मनो क्षय अने अनुदीर्ण कर्मनो विपाकथी तथा प्रदेशथी तद्दन ज अननुभव अर्थात्
आच्छादित उदयपणु. अनादि मिथ्यादृष्टिवाळा जीवने ज्यारे औपशमिकसम्यक्त्वनो लाभ थाय त्यारे अने जे जीव उपशम श्रेणीमा गएल होय तेने आ उपशम होय छे. ['अणुदिन्नं उवसामेइ'त्ति] उदीर्ण कर्म वेदाएलं होवाथी तेनुं उपशमन होतुं ज नथी. उदीरणामां आवतुं कर्म वेदाय छे. माटे हवे वेदन विषयक सूत्र कहे छे:-तेमां ['उदिन्नं वेएइ'त्ति] उदीर्ण कर्मने वेदे छे. कारण के अनुदीर्ण कर्म वेदातुं नथी. कदाच अनुदीर्ण कर्म पण वेदाय तो उदीर्ण अन अनुदीर्ण कर्ममां शो फेर रहे ? वेदवामां आवतुं कर्म निर्जराय छे. माटे हवे निर्जरासूत्र कहे छः-तेमां [ 'उदयअणंतरपच्छाकडं ति] उदयमां आवेलुं कर्म जीव प्रदेशोधी खरी पडे छे पण बीजुं नहीं. कारण के वीजा कर्मनो रस अनुभवायो नथी. हवे उदीरण, उपशमन, वेदन अने निर्जरा संबंधी पूर्वोक्त सूत्रना अर्थाने संग्रह करनारी गाथा कहे छ:-त्रीजामां उदीरे छे, वीजामां उपशमावे छे. अने प्रथममां तथा चोथामा सर्व जीवो वेदे छ तथा निर्जरे छे.
मतीत असत.
गाथा.
उपशम.
संग्रह
१. प्र. छायाः-मोहस्यैवोपशमः, क्षयोपशमश्चतुर्णा घातिनाम्, उदय-क्षय-परिणामा अष्टानामपि भवन्ति कर्मणाम्. २. तृतीयेनोदीरयन्ति,
उपशमयन्ति च पुनरपि द्वितीयेन, वेदयन्ति, निर्जरयन्ति च प्रथम-चतुर्थः सर्वेऽपिः-अनु. Jain Education International
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