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१२२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक १.-उद्देशक ३. १३७. उ०—एत्थ वि सव्वे वि परिवाडी, नवरं-उदिनं वेएइ, १३७. उ०-हे गौतम ! अहीं पण बधी पूर्वोक्त परिपाटी णो अणुदिनं वेएइ, एवं जाव-पुरिसकारपरिकमेइ वा. जाणवी. विशेष ए के, उदीर्णने वेदे छे पण अनुदीर्णने वेदतो
नथी, तथा ए प्रमाणे यावत्-पुरुषकारपराक्रमथी वेदे छे. १३८. प्र०—से णूणं भंते ! अप्पणा चेव निजरेति, अ- १३८. प्र०—हे भगवन् ! ते पोतानी मेळे ज निर्जरे, गर्ने ? प्पणा चेव गरहह ?
१३८. उ०—एत्थ वि सव्वे वि परिवाडी, नवरं-उदयाण- १३८. उ०-हे गौतम! अहीं पण बधी परिपाटी पर्यनी तरपच्छाकडं कम्मं निजरेइ, एवं जाव-परिकमेइ वा. प्रमाणे जाणवी. विशेष ए के, उदयानंतर पश्चात्कृत कर्मने निर्जरे
छे अने ए प्रमाणे यावत्-पुरुषकारपराक्रमथी निर्जरे छे..
६. अथ तस्यैव बन्धमभिधातुमाहः-'जीवा णं भंते । कंखा-' इत्यादि. 'पमायपचय'त्ति प्रमादप्रत्ययात् प्रमत्ततालक्षणाद्धेतोः, प्रमादश्च मद्यादिः. अथवा प्रमादग्रहणेन मिथ्यात्वा-ऽविरति-कषायलक्षणं बन्धहेतुत्रयं गृहीतम् , इष्यते च प्रमादेऽन्तर्भावोऽस्य. यदाहः"पमाओ य मणिंदेहि भणिओ अट्ठभेयओ, अण्णाणं संसओ चेव मिच्छानाणं तहेव य. रोगदोसो मइभंसो धम्मम्मि य अणायरो जोगाणं दुप्पणिहाणं अट्टहा वज्जियव्वओ"त्ति. तथा 'जोगनिमित्तं च' योगा मनःप्रमृतिव्यापाराः, ते निमित्तं हेतुर्यत्र तत् , तथा बध्नन्ति इति, क्रियाविशेषणं चेदम् , एतेन च योगाख्यश्चतुर्थः कर्मबन्धहेतुरुक्तः. चः शब्दः समुच्चये. अथ प्रमादादेरेव हेतुफलभावं दर्शयमाह:-'से थे' इत्यादि. 'पमाए किंपवहे'त्ति प्रमादोऽसौ कस्मात् प्रवहति-प्रवर्तते इति किंप्रवहः. पाठान्तरेण किंप्रभवः. 'जोगप्पवहे' त्ति योगो मनःप्रभृतिव्यापारः, तत्प्रवहत्वं च प्रमादस्य--मद्याद्यासेवनस्य, मिथ्यात्वादित्रयस्य च मनःप्रभृतिव्यापारसद्भावे भावात्. 'वीरियप्पवहे'त्ति वीर्य नाम वीर्यान्तरायकर्मक्षय-क्षयोपशमसमुत्थो जीवपरिणामविशेषः. 'सरीरप्पवहे'त्ति वीर्य द्विधा-सकरणम् , अकरणं च. तत्राऽलेश्यस्य केवलिनः कृत्स्नयो य–दृश्ययोः केवलं ज्ञानम् , दर्शनं च उपयुञ्जानस्य योऽसौ अपरिस्पन्दोऽप्रतिघो जीवपरिणामविशेषस्तदकरणम् , तदिह नाधिक्रियते. यस्तु मनो-वाक्-कायकारणसाधनः सलेश्यजीवकर्तृको जीवप्रदेशपरिस्पन्दात्मको व्यापारोऽसौ सकरणं वीर्यम् , तच्च शरीरप्रवहम्-शरीरं विना तदभावादिति. 'जीवप्पवहे'त्ति इह यद्यपि शरीरस्य कर्मापि कारणम्, न केवल एव जीवः. तथाऽपि कर्मणो जीवकृतत्वेन जीवप्राधान्याद् 'जीवप्रवहं शरीरम्' इत्युक्तम् .
कांक्षामोहनीयवध. ६. हवे ते कांक्षामोहनीयना बंधनुं निरूपण करवा कहे छे के:-[ जीवा णं भंते ! कंखा'-इत्यादि] ['पमायपचय'त्ति प्रमादरूप कारणने लइने कांक्षा
मोहनीय कर्म बंधाय छे. ते प्रमाद मद्य वगेरे रूप छे. अथवा अहीं प्रमाद एटले मिथ्यात्व, अविरति अने कषाय ए त्रण बंधना हेतुनुं ग्रहण करवं.
अने ए प्रमाणे इष्ट पण छे. कारण के आ (हमणां कहेला) मिथ्यात्वादि वणनो समावेश प्रमादा थवो संभवित पण छे. का छे के:प्रमाद अने योग. "मुनींद्रोए आठ प्रकारनो प्रमाद कह्यो छे. ते आ प्रमाणेः-अज्ञान, संशय, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेष, मतिभ्रंश, धर्ममां अनादर, योगो
अने दुनि; ए आठ प्रकारनो प्रमाद छोडी देवो जोइए." तथा ['जोगनिमित्तं च'] योगो एटले मन, वचन अने शरीरना व्यापारो; जेमां योगो
निमित्त छे ते योगनिमित्त, योगनिमित्त' ए बंधन क्रियानुं विशेषण छे. आ सूत्र द्वारा कर्मबंधनो चोथो हेतु कह्यो छे. हवे प्रमादादिकनो परस्पर प्रमाद शाथी ? हेतुफलभाव-कार्यकारण संबंध-दर्शावता कहे छे के:-[से ' इत्यादि] [‘पमाए किंपवहे 'त्ति] क्याथी प्रबहे ते किंप्रवह, अर्थात् आ प्रमाद क्याथी योगथी. योग शाथी? थाय छे ? कोइ स्थले 'किंप्रभव' एवो पाठ छे. तेनो अर्थ पण पूर्वनी जेबो ज छे. ['जोगप्पबहे'त्ति] योग एटले मन वगेरेनो व्यापार, प्रमादनो उत्पादक वीर्यथी. वीर्य शाथी योग छे. कारण के मद्यादिकनुं आसेवन अने मिथ्यात्वादिक त्रण ए रूप प्रमाद त्यारे ज संभवी शके छे ज्यारे मन वगेरेनो व्यापार होय छे. [वीरियशरीरथी. शरीर पवहे'त्ति] वीर्य एटले वीर्यातरायना क्षय अने क्षयोपशमथी उत्पन्न थएलो एक प्रकारनो जीवनो परिणाम. ['सरीरप्पवहे'ति] वीर्यना बे प्रकार छ:--
सकरण अने अकरण. लेश्या विनाना अने समस्त ज्ञेय तथा दृश्य पदार्थमां केवलज्ञानना अने केवलदर्शनना उपयोगवाळा केवलिनो जे चेष्टा विनानो भकरण,
अस्खलित परिणाम ते अकरणवीर्य. आ प्रकरणमा ते अकरण वीर्यनो अधिकार नथी. पण सकरणवीर्यनो अधिकार छ अने ते सकरणवीर्यसकरण, स्वरूप आ छः-लेश्यावाळा जीवनो मन, वचन अने कायरूप साधनवाळो आत्मप्रदेशना परिस्पंदरूप जे व्यापार ते सकरणवीर्य, ते सकरणवीर्यजीवथी. उत्पादक शरीर छे. कारण के शरीर विना ते वीर्य थइ शकतुं नथी. [ 'जीवप्पवहे'त्ति] शरीरनो उत्पादक जीव छे. जो के शरीरनुं कारण
एकलो जीव ज नथी, कर्म पण छे, तो पण कर्मनुं कारण जीव छे माटे जीव सर्वथी प्रधान होबाथी शरीरनु कारण पण जीव कयो छे.
शाथी!
१. मूलच्छायाः-अत्राऽपि सर्वाऽपि परिपाटी. नवरम्-उदीर्ण वेदयति,नो अनुदीर्ण वेदयति, एवं यावत्-पुरुषकारपराक्रम इति वा. तद् नूनं भगवन् ! आत्मनैव निर्जरयति, आत्मनैव गई ते ? अत्रापि सर्वापि परिपाटी. नवरम्-उदयाऽनन्तरपश्चात्कृतं कर्म निर्जरयति, एवं यावत्-पराक्रम इति वा:-अनु०
१. प्र.छायां:-प्रमादश्च मुनीन्द्रर्भणितोऽष्टभेदकः-अज्ञानम्, संशयः, चैव मिथ्याज्ञानं तथैव च. २. रागद्वेषो मतिभ्रंशो धर्मे चानादरो योगा दुष्प्रणिधानमष्टधा वर्जयितव्यः-अनु०
१. 'च' शब्द समुच्चयनो बोधक छे:-श्रीअभय.
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