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पर्व
शतक १.-उद्देशक ३.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, गणवं. कारण के कोइ पण अपेक्षाए अंगुली वगेरे द्रव्यनु अस्तित्व ऋजुत्वादि पर्यायथी अभिन्न छे-नोखं नथी. तात्पर्य ए के, अंगुलि वगेरेनुं अंगुलि वगरे भावे जे सत्त्व छ ते ते ज रूपे-अंगुलि वगेरेना अंगुलि वगेरे भावे सत्त्वपणे-चक्रत्वादि पर्यायपणे परिणमे छे-अंगुलीमां अंगुलीपणुं कायम रहे अनेना रूपांतरो-वांकी, सीधी वगेरे-थाय छे. आ वातनो निष्कर्ष एज छे के, कोइ पण पदार्थनी कोइ पण प्रकारे सत्ता होय अने ते ज सत्ता वीजे प्रकारे जे प्रकारे पूर्वे होय ते करतां भिन्न प्रकारे-होय छे. जेम के; माटीरूप पदार्थनी सत्ता सौथी पहला एक पिंडलारूपे छे. अने पछी ते ज सत्ता घटरूपे परजायनस्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ'त्ति] अंगुलि वगेरेनुं अंगुठा वगेरे रूपे न होवु ते नास्तित्व अर्थात् अंगुलीनी अपेक्षाए अंगुष्ठादिपणुं ते ज नास्तित्व. अने ते अंगुष्ठादिपणारूप नास्तित्व अंगुल्यादिना नास्तित्वमां-अंगुठा बगेरेना पर्यायांतरे अस्तित्वरूपे-परिणमे छे-होय . जेम के माटीनं नास्तित्व तंतु वगेरे रूप छे अने ते माटीना नास्तित्वरूप पटमां होय छे. अथवा पूर्वोक्त सूत्रनी व्याख्या बीजी रीतिए करवी. ते रीति आ छे:-अस्तित्व एटले सत्त्व नहीं, पण सत्-विधमान-सत्तावाळी-वस्तु लेवी. कारण के 'सत्त्व'ए धर्मरूप छे अने 'सत्' ए धर्मिरूप छे, तथा ते बन्नेनो अभेद छे-ते बन्ने नोखा नथी, माटे ज अहीं अस्तित्व' नो 'सत्' अर्थ करवो. सत् पदार्थ सद्रूपे परिणमे छे-सत् वस्तु सत् ज होय छे. परंतु सद् वस्तु सर्वथा नाश पामती नथी-कारण के विनाशनो अर्थ मात्र रूपांतर थवारूप छे. परंतु सर्वथा नाशरूप नथी. शंकाः-जेम; कोइ एक दीवो बळतो होय विनाश शब्दनो अने तेमांन तेल बळी जवाथी के पवननो सपाटो लागवाथी ते दीवो बुझाइ जाय छे. हवे जो 'विनाश'नो अर्थ मात्र 'विकार'-'रूपांतर थवारूप'-ज होय तो ते दीवानो नाश थया पछी पण ते बीजे रूपे देखावो जोइए, परंतु तेम जणातुं नथी माटे 'विनाश' नो अर्थ 'विकार' न थाय, पण 'समूळ नाश' थवो जोइए. समाधानः-दीवानो नाश तद्दन थतो ज नथी, पण ते बीजे रूपे देखाय छे. आ स्थळे प्रकाशना परमाणुना समूहने आपणे दीवो कहीए छीए अने प्रकाशनो नाश थवाथी आपणे दीवानो नाश समजीए छीए. खरी रीते प्रकाशनो नाश थतो ज नथी पण तेने आपणे रूपांतरमा आवलो जोइए छीए. ज्यारे दीवो बळतो होय छे त्यारे प्रकाशवाळा स्थळे अंधकार जणातो नथी पण ज्यारे दीवो बुझाइ जाय छे-प्रकाश मटी जाय छे-त्यारे तेज प्रकाशवाळा स्थळमां अंधारूं थइ जाय छे. जे आ अंधारुं छे ते ज दीवानो विकार अर्थात् पेला प्रकाशना परमाणुओ सामग्रीवशात् अंधकाररूपे परिणम्या छे, माटे दीवानो तद्दन नाश थतो नथी पण ते अंधकाररूपे अस्तित्व धरावे छे, माटे 'नाश' नो अर्थ 'विकार' ज करवो ठीक छ, पण 'समूळ नाश' ए अर्थ अघटित छे. ए ज प्रकारे दरेक पदार्थना नाश संबंधे पण समजवं. बीजा प्रकारना व्याख्यानमां 'नास्तित्व'नो अर्थ अत्यंत अभावरूप छे अने ते अत्यंत अभावरूप नास्तित्व खरविषाण (गर्दभशृंग) वगेरे छे. ते (अत्यंत अभावरूप नास्तित्व) नास्तित्वमां-अत्यंत अभावमां-वर्ते छे. कारण के जे वस्तु सर्वथा असत् होय तेनु कोइ दिवस सत्त्व होइ शकतुं ज नथी. जेम; खरविषाण,. कयुं छे के:-"असत् सद्रूप थतुं नथी, अने सत् असद्रूप थतुं नथी" अथवा धर्मि साथै अभेद छ माटे 'अस्तित्व' एटले सत्, जे सत् छे ते सत्त्वरूप धर्ममां होय छे. जेम, पट पटत्वमा ज छे तेम. अने नास्तित्व एटले असत् . जे असत् छे ते असत्त्वरूप धर्ममा होय छे. जेम; अपट अपटपणामां जछे तेम. हवे पदार्थना जूदा जूदा परिणाम थवाना हेतुओ दर्शावता कहे छे के:-[ 'जं तं' इत्यादि] [ अस्थित्तं अस्थित्ते परिणमइ'त्ति] अर्थात् एक प्रकारनो पर्याय बीजा प्रकारना पर्यायने पामे छे. ['नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ'त्ति] कोइ पण बीजा पदार्थनो पर्याय इतर पर्यायने पामे छे. [पओगसे'त्ति] प्रयोग-जीवनो प्रयोग. व्यापार, ते वडे. [वीसस'त्ति] जो के 'विश्रसा' शब्दनो प्रसिद्ध अर्थ तो घडपण छे, तो पण अहीं तेनो 'स्वभाव' अर्थ समजवो. अहीं उत्तर आ छे:[पओगसा वि तंति] ते अस्तित्वादिरूप परिणाम प्रयोगवडे पण थाय छे. जेम; कुंभारनी क्रियाथी माटीनो पिंडलो घटरूपे परिणमे छे. मनुष्यनी क्रियाथी सीधी आंगळी वांकी वळे छे. ['वीससा वि तं'ति] ते अस्तित्वादि परिणाम स्वभाववडे-कोइनी क्रिया सिवाय-पण थाय छे. जेम; शुभ्रधोळ वादळु अशुभ्रपणे परिणमे छे. ए ज प्रकारे नास्तित्वपरिणाममां पण प्रयोग अने स्वभावना उदाहरणो कहेवां, पण ते बीजी वस्तुनी अपेक्षाए समजवां. कारण के बीजी वस्तुनी अपेक्षाए बीजी वस्तु नास्तित्वरूप होय छे अर्थात् घटादिनी अपेक्षाए माटीनो पिंडलो नास्तित्वरूप छे. 'सत्' पदार्थ 'सत्' रूप ज होय छे' एवी बीजी व्याख्याना पक्षमा पण ए ज ( पूर्वोक्त) उदाहरणो समजवां. कारण के वस्तु पूर्व अने उत्तर अवस्थामां सद्रूप छे. वळी जे अभावरूप होय ते अभावरूप ज रहे' एवं जे व्याख्यान कर्यु छे ते पक्षमा प्रयोग अने विस्रसा ए बन्नेने पण हेतुरूप समजवां अर्थात् जे अभाव होय ते प्रयोगथी पण अने विस्रसाथी पण अभावरूप ज रहे. पण प्रयोगादिनुं साकल्य छ एम न कहे. अर्थात् अमुक परिणाम प्रयोगधी ज थाय छे अने अमुक परिणाम स्वभावथी ज थाय छे एम न कहे. ' ५. अथ उक्तहेत्वोरुभयत्र समताम् , भगवदभिमततां च दर्शयन्नाहः-'जहा ते इत्यादि. यथा प्रयोग-विश्रसाभ्यामित्यर्थः. 'ते' इति तव मतेन,अथवा सामान्येन अस्तित्वनास्तित्वपरिणामः प्रयोग-विश्रसाजन्य उक्तः. सामान्यश्च विधिः कचिदतिशयवति वस्तुनि अन्यथाऽपि स्यात् , अतिशयवांश्च भगवानिति तमाश्रित्य परिणामान्यथात्वमाशङ्कमान आहः-'जहा ते' इत्यादि. 'ते' इति तव सम्बन्धिअस्तित्वम् , शेष तथैवेति. अथ उक्तस्वरूपस्यैवार्थस्य सत्यत्वेन प्रज्ञापनीयतां दर्शयितुमाहः-से णणं' इत्यादि. अस्तित्वम्-अस्तित्वे गमनीयम्-सद्वस्तु सत्त्वेनैव प्रज्ञापनीयमित्यर्थः. 'दो आलावग'त्ति-से गुणं भंते ! अत्थित्तं अस्थित्ते गमणिजं इत्यादि, पओगसा वि तं, वीससा वि तं" इत्येतदन्त एकः, परिणामभेदाऽभिधानात्. "जहा ते भंते ! आत्थित्तं अस्थित्ते गमणिज्ज इत्यादि, तहा मे अस्थित्तं अस्थित्ते गमणिज" इत्येतदन्तस्तु द्वितीयः-अस्तित्वनास्तित्वपरिणामयोः समताऽभिधायी. एवं वस्तुप्रज्ञापनाविषयां समभावतां भगवतोऽभिधाय, अथ शिष्यविषयां तां दर्शयन्नाहः-'जहा ते' इत्यादि. यथा स्वकीयपरकीयताऽनपेक्षतया समत्वेन विहितमिति प्रवृत्त्या, उपकारबुद्ध्या वा ते तव भदन्त ! 'एत्थं' ति एतस्मिन् मयि संनिहिते स्वशिष्ये गमनीयं वस्तु प्रज्ञापनीयम् , तथा तेनैव समतालक्षणप्रकारेण, उपकारधिया वा 'इह'ति इह अस्मिन् गृहिपाखण्डिकादौ जने गमनीयं वस्तु प्रकाशनीयमिति प्रश्नः. अथवा 'एत्थंति स्वात्मनि यथा गमनीयं सुखप्रियत्वादि, तथा इह परात्मनि. अथवा यथा प्रत्यक्षाऽधिकरणार्थतया 'एत्थं' इत्येतच्छब्दरूपं गमनीयम् , तथा 'इहं' इत्येतत्शब्दरूपमिति, समानार्थत्वाद् द्वयोरपि इति. काडामोहनीयकर्मवेदनं सप्रसङ्गमुक्तम् .
स्वमाप.
१. अहीं 'स' कारनो आगम लागेलो छे. २. आ विभक्तिरहितरूप प्राकृतना धोरणे छे. ३. 'अपि' शब्द समुघयनो सूचक छे:-धीअभयदेव.
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