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शतक १.-उद्देशक ३.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. कान्यकालापेक्षया मिश्रकालस्यानन्तगुणत्वाभावप्रसङ्गाद् इति. आह च:-"कि' कारणमाइट्टा नेरड्या जे इमम्मि समयम्मि, ते ठिइकाल
जम्दा सवे खविनंति." 'सव्वत्थोवे असुनकाले'त्ति नारकाणामुत्पादोद्वर्तनाविरहकालस्य उत्कर्षतोऽपि द्वादशमुहर्तप्रमाणत्वात. निकाले अणंतगणे'त्ति मिश्राख्यो विवक्षितनारंकजीवनिर्लेपनाकालोऽशून्यकालाऽपेक्षयाऽनन्तगुणो भवति, यतोऽसौ नारकेतरेष्वाऽऽगमनगमनकालः, स च त्रस-वनस्पत्यादिस्थितिकालमिश्रितः सन्नऽनन्तगुणो भवति, त्रस-वनस्पत्यादिगमनागमनानामनन्तत्वात्, स च नारकनिलेपनाकालो वनस्पतिकायस्थितेरनन्तभागे वर्तते इति. उक्तं चः-“योवोऽसुन्नकालो सो उक्कोसेण बारसमुहत्तो, तत्तो य अणंतगणो सीमोनिलेवणाकालो. आगमण-गमणकालो तसाइ-तरुमीसओ अणंतगुणो, अह निल्लेवणकालो अणंतभागे वणद्धाए."त्ति 'सनकाले अणतगणे'त्ति सर्वेषां विवक्षितनारकजीवानां प्रायो वनस्पतिष्वनन्तानन्तकालमवस्थानात्, एतदेव च वनस्पतिष्वनन्ताऽनन्तकालाऽवस्थान जीवानां नारकभवाऽन्तरकाल उत्कृष्टो देशितः समये इति. उक्तं च:-"सुनो य अर्णतगुणो सो पुण पायं वणस्सइगयाणं, एवं चेव य नारयभवंतरं देसियं जेट्ठ." ति 'तिरिक्खजोणिआणं सव्वत्थोवे असुन्नकाल' इति स चाऽऽन्तर्महर्तमात्रः, अयं च यद्यपि सामान्येन तिरश्चामक्तः, तथापि विकलेन्द्रिय-समूछिमानामेवाऽवसेयः, तेषामेवाऽन्तरमुहूर्तमानस्य विरहकालस्योक्तत्वात्. यदाहः-"भिन्नमुहत्तो विगलेंदिएस. संमच्छिमेस वि स एव" एकेन्द्रियाणां तूद्वर्तना-उपपातविरहाऽभावेनाऽशून्यकालाऽभाव एव. आह च:-"एगो असंखभागो वट्टइ उव्वट्टणोववायम्मि, एगनिगोए निचं एवं सेसेसु वि स एव." पृथिव्यादिषु पुनः 'अणुसमयं असंखेज'त्ति वचनाद्विरहाभाव इति. 'मिस्सकाले अणंतगुणे'त्ति नारकवत्, शून्यकालस्तु तिरश्चां नास्त्येव, यतो वार्तमानिकसाधारणवनस्पतीनां तत उद्वृत्तानां स्थानमन्यद् नास्ति. मणस्स-देवाण य जहा नेरइयाणं'ति अशून्यकालस्याऽपि द्वादशमुहूर्तप्रमाणत्वात्. अत्र गाथाः-"एवं नरा-उमराण वि तिरियाणं नवरि नत्थि सुबद्धा, जं निग्गयाण तेसिं भायणं अनं तओ नत्थि." 'एयस्स' इत्यादि व्यक्तम्,
१३. मिश्र नारक संसारावस्थानकाळना विचार संबंधी आ सूत्र ते ज वार्तमानिक नारक भवने आश्रीने प्रवर्यु नथी, पण वार्तमानिक नारक जी- आ सूत्र विषे भाक्षेप वोनी बीजी गतिना गमनवडे त्यां ज उत्पत्तिने आधीने प्रवत्यु छे. वळी जो ते ज नारक भवने आश्रीने आ सूत्र प्रवर्ते तो सूत्रमा कहेली शून्यकाळनी समाधान. अपेक्षाए मिश्रकाळनी अनंतगुणता थइ शके नही. कडुं छे के:-"वळी ए सूत्र ते जीवोने माटे ते भवने आश्री ने नथी. जो ते भवने आश्रीने होय तो अनंतकाळ संभवतो नथी." केम संभवतो नथी? तो कहे छे:-जे वार्तमानिक नारको छे तेओ पोताना आयुष्यकाळना छेवटने भागे उद्वर्ते छे अने तेओनं आयुष्य तो असंख्यात ज छे माटे वधारमा वधारे बार मुहूर्तना अशून्यकाळनी अपेक्षाए मिश्रकाळनुं अनंतगुणपणुं बनवु ए अप्रसंग जेबुं छे. कर्ष छे के, "अनंतकाळ न संभवे तेमां शुं कारण छ ? तो कहे छे केः-आ समये-वर्तमान समये-जे नैरयिको छे तेओ स्थितिकाळने छेडे बधा खपी जवाना छे. [ सव्वत्थोवे असुन्नकाले'ति] नारकोनो उत्पाद, उद्वर्तना अने विरहकाळ वधारेमा वधारे पण बार मुहूर्त प्रमाण छ माटे अशून्यकाळ सौथी थोडो छे. [ 'मिस्सकाले अणतगुणे'त्ति] मिश्र नामनो विवक्षित नारक जीवोनो निर्लेपनाकाळ अशून्यकाळनी अपेक्षाए अनंतगुण छे. कारण के
अनंतगुण. ए नारकोमां अने बीजाओमां गमनागमनकाळ छे अने ते त्रस अने वनस्पति वगेरेना स्थितिकाळथी मिश्रित थतो अनंतगुण थाय छे. कारण के बस अने वनस्पत्यादिना गमनागमनो अनंत छे अने ते नारकनो निर्लेपनाकाळ वनस्पतिकायनी स्थितिना अनंत भागे वर्ते छे. कडुं छे के,"अशून्यकाळ थोडो छे अने ते वधारेमां वधारे बार मुहूर्तनो छे. तेथी अनंतगुण मिश्र निर्लेपनाकाळ छे." "आगमन अने गमननो काळ अस अने तरुथी मिश्रित थयो छतो अनंतगुण थाय छे अने निर्लेपनाकाळ वनस्पतिकाळने अनंते भागे छे." ['सुन्नकाले अणंतगुणे ति] शून्यकाळ अनंतगुण छे. कारण के अनंतगण, बधा विवक्षित नारकोनुं घणुं करीने वनस्पतिमां अनंतानंतकाळ सुधी अवस्थान छे. अने ए ज (वनस्पतिमां अनंतानंतकाळ सुधी, अवस्थान) जीवोनो नारकभवांतरकाळ उत्कृष्टरूपे सिद्धांतमां कह्यो छे. कधू छे के:-"शून्यकाळ अनंतगुण छे, अने ते झाझा भागे वनस्पतिमां गएलाओने होय छे अने एज मोटामा मोटुं नारकभवांतर कयुं छे." [तिरिक्खजोणिआणं सव्वत्थोवे असुन्नकाल' इति ] तिर्यंचयोनिकोनो अशून्यकाळ सौथी थोडो छे अने ते अंतर्मुहर्त जेटलो छे. जो. के आ काळ साधारण दरेक तियेचोना संबंधे कह्यो छे तो पण विकलेंद्रिय अने संमूर्छिमो संबंधे ज जाणवो. कारण के तेओने ज अंतरमुहूर्तनो विरह काळ कयो छे. कयुं छे के:-"विकलेंद्रिय अने संमूर्छिमो संबंधे पण भिन्नमुहूर्त कह्यो छे." एकेंद्रियोने तो उद्वर्तनाना अने उपपातना विरहनो अभाव छ माटे अशून्यकाळ नथी. कह्यु छ के-"एक निगोदमां हमेशा एक असंख्यभाग उद्वर्तनामां अने उपपातमा वर्ते छ, ए प्रमाणे बाकीनामां पण जाणवू." वळी "प्रति समये असंख्य" एवं वचन होवाथी पृथिवी वगरेमा विरहनो अभाव को छे. [ 'मिस्सकाले अर्णतगुणे'त्ति] ए नारकनी पेठे छे. शून्यकाळ तो तियेचोने छ ज नहीं. कारण के त्यांथी उद्वृत्त वार्तमानिक साधारण वनस्पतिओनुं बीजं स्थान नथी. ‘मणुस्स-देवाण य जहा नेरइयाणं'ति] मनुष्य अने देवोने नैरयिकोनी पेठे जाणवू. कारण के अशून्यकाळ पण बार मुहूर्त जेटलो छे. अहीं गाथाः- मनुष्य-देव. 'ए प्रमाणे मनुष्य अने देवो संबंधे पण जाणवू. विशेष ए के, तियेचोने शून्यकाळ नथी. कारण के नीकळेला तेओनुं तेथी बीजं भाजन-स्थान-नथी ['एअस्स' इत्यादि] व्यक्त-स्पष्ट-छे.
आगमन अने गमनको
लातकाळने अनंते भागे
नारकोर्नु घणुं करीने वनस
१. प्र. छायाः- किं कारणमादिष्टा नैरयिका येऽस्मिन् समये, ते स्थितिकालस्यान्ते यस्मात् सर्वे क्षप्यन्तेः. २. स्तोकोऽशून्यकालः स उत्कृष्टेन द्वादशमुहूर्तः, ततवानन्तगुणो मिश्रो निलेपनाकालः. ३. आगमन-गमनकालत्रसादि-तरुमिश्रकोऽनन्तगुणः, अथ निलेपनकालोऽनन्तभागे वनाद्धायाः. ४. शून्यवानन्तगुणः स पुनः प्रायो वनस्पतिगतानाम्, एतदेव च नारकभवान्तरं देशितं ज्येष्टम्. ५. भिन्नमुहूर्तों विकलेन्द्रियेषु, सम्मूर्छिमेष्वपि स एव. ६. एकोऽसंख्यभागो वर्तते उद्वर्तनोपपाते, एकनिगोदे, नित्यमेवं शेषेष्वपि स एव. ७. एवं नरा-उमराणामपि, तिरश्चां नवरम्-नास्ति शून्यादा, यद् निर्गतानां तेषां भाजनमन्यत् ततो नास्तिः-अनु०
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