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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक १.-उद्देशक २.
संयम नथी.
कर लेश्या कोने
होय.
संयत अने अप्रमत्तसंयत' ए कहुं छे, तो पण अहीं कृष्णलेश्या अने नीललेश्याना दंडकमां ते न कहे. कारण के कृष्ण अने नीललेश्यानो उदय होय त्यारे संयमनो निषेध छे. "जेणे संयमने पूर्व स्वीकार्यो हतो एवो जीव कोइ एक लेश्यामां होय छे.” एम जे कयुं छे ते कृष्णादि द्रव्यरूप लेश्याने आश्रीने कर्पु छे. पण कृष्णादि द्रव्यनी समीपताथी उत्पन्न थएल आत्मपरिणामरूप भावलेश्याने आश्रीने कधू नथी. अने ए आगळ पण क छे. एज वातने दर्शावता शास्त्रकार कहे छे केः-['मणुस्सा' इत्यादि] कापोतलेश्यानो दंडक पण नीलादि लेश्याना दंडकनी पेठे कहयो. तेमा विशेष ए के नारक पदना वेदना सूत्रमा नारको औधिक दंडकनी पेठे ज कहेवा. अने ते आ प्रमाणे छे:-'नैरयिको बे प्रकारना कसा छे, ते आ प्रमाणे:संज्ञिभूत अने असंज्ञिभूत.' असंशिजीवो प्रथम पृथिवीमा उत्पन्न थता होवाथी तेओने कापोतलेश्यानो संभव छे, माटे कहे छ के-['काउलेस्साण वि' इत्यादि] तथा जेम औधिक दंडक कसो तेम जे जीव विशेषने तेजोलेश्या अने पद्मलेश्या छे तेने आश्रीने तेना बे दंडक कहेवा. जीवोने लेश्याओ आ प्रमाणे होय छेः-नारकोने, विकलेंद्रियोने, तेजने अने वायुने प्रथमनी त्रण ज लेश्याओ छे. भवनपति, पृथिवी, पाणी, वनस्पति अने व्यंतरोने प्रथमनी चार लेश्याओ छे. पंचेंद्रियतिर्यंच अने मनुष्योने छ लेश्याओ छे. ज्योतिष्कोने तेजोलेश्या छे. वैमानिकोने त्रण प्रशस्त लेश्याओ छे. कयुं छे केः-"कृष्ण, नील, कापोत अने तेजोलेश्या भवनपतिओने तथा व्यंतरोने होय छे. ज्योतिष्क, सौधर्म अने ईशानमा तेजोलेश्या जाणवी. सनत्कुमार कल्पमा, माहेंद्र अने ब्रह्म लोकमां, (एओमा) पद्मलेश्या छे. अने त्यांची आगळ शुक्ललेश्या छे. तथा पृथिवी, पाणी अने बादर तथा प्रत्येक वनस्पतिमा चार लेश्या-तेजोलेश्या सुधीनी लेश्याओ-होय छे. अने गर्भज तियेच अने मनुष्यमा छ लेश्याओ होय छे तथा बाकीनाने त्रण लेश्याओ होय छे" मात्र औधिक दंडकमा क्रियासूत्रमा सराग अने वीतराग विशेषणवाळा मनुष्यो कह्या, पण अहीं तो ते प्रकारे न कहेवा. कारण के तेजोलेश्या अने पद्मलेश्यामां वीतरागपणुं संभवतुं नथी, पण शुक्ललेश्यामां ज संभवे छे. प्रमत्त अने अप्रमत्त मनुष्यो तो कहेवाना छे अने तेने ज. दर्शावता कहे छे-'तेउलेस्सा पम्हलेस्सा' इत्यादि] ['गाह'त्ति] उद्देशकनी आदिथी ते अत्यार सुधीना सूत्रार्थने सुचवनारी संग्रहगाथा गतार्थ छे, तो पण सुखपूर्वक बोध थाय ते माटे तेनो अर्थ कहेवाय छे-'दुःख अने आयुष्य उदीर्ण होय तो वेदाय छे' ए प्रमाणे एकवचन अने बहुवचनवडे चार दंडक कथा. तथा ['आहारे'त्ति] 'शुं नैरयिको समान आहारवाळा छे ?' इत्यादि. तथा 'शुं समान कर्मवाळा छे' तथा 'शुं समान वर्णवाळा छ ।' तथा 'शुं समान लेश्यावाळा छ ?' तथा 'शुं समान वेदनावाळा छ ?' तथा 'शुं समान क्रियावाळा छे ?' तथा 'शुं समान आयुष्यवाळा अने समान उपपन्नक छे ? ( इत्यादि प्रश्नोतुं निराकरण आ उद्देशकमां अत्यार सुधी थयुं छे.) ए प्रमाणे गाथानो अर्थ छे.
संग्रह...
लेश्या.
९८. प्र०-कइ णं भंते ! लेस्साओ पण्णत्ताओ ? ९८. प्र. हे भगवन् ! लेश्याओ केटली कही छे ? . ९८. उ०-गोयमा ! छ लेस्साओ पण्णत्ता, तं जहाः- ९८. उ०-हे गौतम ! लेश्याओ छ कही छे. ते आ प्रमाणे:लेस्साणं बिईओ उद्देसो भाणियव्वो, जाव-इडी.
कृष्णलेश्या वगेरे. अहीं प्रज्ञापनासूत्रमा कहेल चार उद्देशकवाळा लेश्यापदनो बीजो उद्देशक कहेवो. ते यावत्-'इडी-ऋद्धि'नी वक्तव्यता सुधी कहेवो.
- ११. प्राक् ‘सलेश्या नारकाः' इत्युक्तम्, अथ लेश्या निरूपयन्नाहः-'कइ णं' इत्यादि. तत्राऽऽत्मनि कर्मपुद्गलानां लेशनात् संश्लेषणाद् लेश्याः, योगपरिणामश्चैताः, योगनिरोधे लेश्यानामभावात्, योगश्च शरीरनामकर्मपरिणतिविशेषः. 'लेस्साणं बीईओ उद्देसो'त्ति प्रज्ञापनायां लेझ्यापदस्य चतुरुद्देशकस्य इह द्वितीयोदेशको लेश्यास्वरूपाऽवगमाय भणितव्यः. 'प्रथमः' इति कचिद् दृश्यते सोऽपपाठ इति. अथ कियद् द्रं यावत् ? इत्याह:-'जाव-इडी' ऋद्धिवक्तव्यतां यावत्. स चाऽयं संक्षेपतः-"केइ णं भंते । लेस्साओ पन्नताओ ? गोयमा छ लेस्साओ पण्णत्ताओ. तं जहा:-कण्हलेस्सा, ६." एवं सर्वत्र प्रश्नः, उत्तरं च वाच्यम् . "नेरेइयाणं तिण्णि-कण्हलेस्सा,३.तिरिक्खजोणियाणं ६. एगिदियाणं ४. पुढवि-आउ-वणस्सईणं ४. तेउ-वाउ-बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदियाणं ३. पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं ६." इत्यादि बहुवाच्यम् , यावत्-"एस णं भंते ! जीवाणं कण्हलेस्साणं जाव-सुक्कलेस्साणं कयरे कयरोहतो अप्पिड्डिया वा, महिड्डिया वा ? गोयमा ! कण्हलेस्सेहितो नीललेस्सा महिडिया, नीललेस्सेहितो कापोयलेस्सा" इत्यादि.
श्याविचार
११. आगळना प्रकरणमा 'नारको सलेश्य-लेश्यावाळा-छे' एम कर्दा छे माटे हवे लेश्याओने निरूपवा कहे छे केः-[ 'कइ णं' इत्यादि.] लेश्या चोंटाडनारी अर्थात् आत्मा साथे कर्मपुद्गलोने चोंटाडनार ते लेश्या. ए लेश्या योगना ( शारीरिक, वाचिक अने मानसिक व्यापारना) परिणाम रूप छे, कारण के ज्यारे योगनो निरोध होय छे त्यारे ते लेश्याओ होती नथी. अने योग ए शरीरनामकर्मनो एक प्रकारनो परिणाम छे. [ 'लेस्साणं बिईओ उद्देसो'त्ति] 'प्रज्ञापना'ना लेश्यापदना चार उद्देशकमांथी अहीं बीजो उद्देशक लेश्यान स्वरूप जाणवा माटे कहेवो. कोइ टेकाणे 'प्रथम उद्देशक कहेवो' ए पाठ छे, पण ते पाठ अपपाठ छे. हवे ते (बीजा उद्देशकनो) पाठ क्यां सुधी कहेवो ? तो कहे छे के:-['जाव-इट्टी'] अथात् ऋद्धिना
प्रथापना
१. मूलच्छाया:-कति भगवन् ! लेश्याः प्रज्ञप्ताः गौतम | षड़ लेश्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाः-लेश्यानां द्वितीय उद्देशो भणितव्यः, यावत्-ऋद्धिः-अनु.
१.प्र. छायाः-कति भगवन् ! लेश्याः प्राप्ताः गौतम ! पड़ लेझ्याः प्रज्ञप्ताः. तद्यथा-कृष्णलेश्या. २. नैरयिकाणां तिस्रः-कृष्णलेश्या. तियग्यानिकाना षट्. एकेन्द्रियाणां चतस्रः पृथिव्य-प-वनस्पतीनां चतस्रः, तेजो-वाय-दीन्द्रिय-श्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियाणां तिस्रः. पश्चेन्द्रियतियग्यानिकाना पद्. ३. एतेषां भगवन् । जीवानां कृष्णलेश्यानां यावत्-शुक्ललेश्यानां कतरे कतरेभ्योऽल्पर्धिका वा. महधिका वा! गौतम! कृष्णलेश्येभ्यो नाललश्या महर्षिकाः, नीललेश्येभ्यः कापोतलेश्या:-अनु०
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