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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक १.-उद्देशक १. कथन होवाथी देवपणाने अयोग्य जीव सामर्थ्यथी ज जणाय छे. आ प्रकारे कहेवाथी [ 'अत्थेगइए नो देवे सिया' ] 'केटलाक जीवो देव थता नथी' उपसंहार. ए पक्षनु निर्वचन आवी जाय छे. हवे चालता उद्देशकना निगमन-उपसंहार-ने माटे कहे छेः-[ सेवं भंते ! सेवं मंते ति] में जे पूज्यं, तेनुं
हे भगवन् ! आपे जे प्रतिपादन कर्यु ते ते ज प्रमाणे छे, हे भगवन् ! बीजी रीते नथी. आ वचन वडे भगवंतना वचननु बहुमान देखाडे छे. पेशक समाप्ति अहीं जे ('भंते !' 'भंते ।' ए प्रमाणे ) बेवार उच्चारण कयु छे, ते भक्तिथी उत्पन्न थएला संभ्रमवडे कर्यु छे एम समजवू. आ प्रमाणे करीने अने गौतमविशार. भगवान् गौतम, श्रमण भगवंत महावीरने वांदे छे, नमे छे. (वांदी, नमी संयम अने तपवडे आत्माने भावता विहरे छे.)
बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन्, दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो पाहको दान्ति-शान्त्योर्, दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिववर मारहा चाप्तमुख्यः ॥१॥
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