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में सव्वेणं सक्के का सिद्धांत महत्त्वपूर्ण है अर्थात् आत्मा हैं सभी असंख्य प्रदेशों से कर्मों का ग्रहण होता है, कुछेक आत्म प्रदेशो से नहीं। प्रकृति बंध अर्थात् कर्मों का स्वभाव। आठ कर्मों का अपना अलग अलग स्वभाव है। जैसे ज्ञानावरणीय ज्ञान को रोकता है, वेदनीय सुख दुख देता है, नाम कर्म शुभ अशुभ शरीर का निर्माण करता है, अंतराय कर्म कार्य में बाधा उत्पन्न करता है। For example ग्रहण किया भोजन प्रोटीन, स्निग्धता, स्वेतक्षार आदि पदार्थो की शरीर में पूर्ति कर देता हैं। सिरदर्द के निवारण हेतु ली गई ट्रेन्कवैनाईजर टेबलेट का असर सिर में ही होता हैं, यह शरीर की स्वाभाविक व्यवस्था है। हमारे कर्म परमाणुओं की भी यही अवस्था है। जो परमाणु गृहीत होते हैं, वे अपने अपने सजातीय परमाणुओं के द्वारा खींच लिए जाते हैं। स्थिति बंध अर्थात् विवक्षित कर्म का जीव के साथ बंधे रहने का कालमान। कर्मों की स्थिति जधन्य दो समय से लेकर उत्कृष्ट मोहनीय कर्म की स्थिति सीत्तेर कोटीकोटी सागर परिमाण है। अनुभाग बंध अर्थात् फलदान की क्षमता। कर्म जीव को तीव्र या मंद कितनी मात्रा में फल देता है। विश्व के पदार्थों में एक ही प्रकार की क्षमता नहीं होती। होम्योपैथी दवाएं - कुछ हाई पोटेन्सीवाली होती है कुछ लो। गाय भैंस के दूध व सरसों के तेल में चिकनाई की मात्रा बराबर नहीं होती। वैसे ही कर्मों के फल देने की शक्ति में तारतम्य होता है। यह तारतम्य कर्म बंधते समय कषाय की तीव्रता व अल्पता पर निर्भर करता है। कर्म के चतुर्विध बंध को मोदक के दृष्टांत से बड़ी सुगमता से समझा जा सकता है। कर्म की दस अवस्थाएं
प्रश्न होता है कि जीव ने जैसा कर्म बांधा है, वैसा ही भोगना पडेगा या उस में परिवर्तन संभव है। इसके समाधान में कर्म की दस अवस्थाओं का निरुपण मननीय है। दस अवस्थाएं - बंध, सत्ता,उदय, उदीरणा उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण, उपशम, निधति, निकाचना। बाद में उदय आने वाले कर्मो को जानबूजकर तपस्यादि के द्वारा खींच कर पहले उदय में ले जाना उदीरणा
જ્ઞાનધારા
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જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
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