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________________ कहलाती है। कर्मों की स्थिति व अनुभाग में वृद्धि होनी उद्वर्तन तथा हास होना अपवर्तन कहलाता है। भगवान महावीर ने कहा - कर्म को बदला जा सकता है, तोड़ा जा सकता है, कर्म को पहेला या पीछे भी किया जा सकता है। दस अवस्थाओ में संक्रमण का सिद्धांत अत्यधिक मननीय है। इस विषयमें ठाणां सूत्र की चतुर्भंगी उल्लेखनीय है। (१) शुभ कर्म का फल शुभ (२) अशुभ का फल अशुभ (३) शुभ का फल अशुभ (४) अशुभ का फल शुभ प्रस्तुत चतुगी में तीसरा व चौथी थाग संक्रमण का प्रतिफल है। संक्रमण का सिद्धांत कर्मवाद की बहुत बड़ी वैज्ञानिक देन है। विज्ञान के अनुसार जीन व्यक्तित्व निर्माण का घटक तत्व है। संक्रमण का सिद्धांत जीव को बदलने का सिद्धांत है। विज्ञान के अनुसार हमारा शरीर की संरचना है। शरीर की सबसे छोटी ईकाई है। cells में जीवन रस है। जीवन रसमे Nuclers और न्युक्लीयस में chromosoms गणसूत्र हैं। क्रोमोसोम में जीन्स हैं। संस्कार सूत्र जीव में हैं। एक एक जीन पर लाखों लाखों आदेश अंकित रहते हैं। वैसे ही एक एक आत्म प्रदेश पर अनंत अनंत कर्म अवस्थित हैं। कर्म की जीव के साथ तुलना भी आंशिक है। संपूर्णतः नहीं, क्योंकि कर्म जीव से कई गुणी अधिक सूक्ष्म हैं। आज के वैज्ञानिक जीव को बदलने की दिशा में प्रयत्नशील ह, उनका मंदव्य है कि जीव को बदलकर पूरे विश्व को बदला जा सकता है। आचार व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सकता है तथा विश्व को जटिलतम समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। जैन दर्शनानुसार संक्रमण के कुछ अपवाद भी हैं - १) संक्रमण केवल उत्तरप्रकृतियों में ही होता है, मूल में नहीं, २) संक्रमण केवल सजातीय प्रकृतियों में ही होता है, विजातीय में नहीं, ३) आयुष्य कर्म की प्रकृतियों का संक्रमण नहीं होता. ४) दर्शन मोह व चरित्र मोह का परस्पर संक्रमण नहीं होता। कर्मबंध की दसवी अवस्था है - निकाचना। यानी कुछ कर्मदलिकों को ज्ञानधारा ૨૫૦) (જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004539
Book TitleGyandhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Barvalia
PublisherSaurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
Publication Year
Total Pages334
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size13 MB
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