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इलेक्ट्रान व प्रोटोन से अनंतगुणा सूक्ष्म है। कर्मों के समूह को कार्मण शरीर भी कहते हैं। कार्मण शरीर अन्य शरीरों का कारण है अत: उसे कार्मण शरीर Causal Body भी कहते हैं । कार्मण शरीर कर्मों का प्ररोहक, उत्पादक व सुख दुख का बीज है। कर्म एक सार्वभौमिक नियम है। प्राणी मात्र उससे प्रभावित है।
कर्म के प्रकार
यदि दो वर्गों में बांटे तो हम घाती व अघाती ये दो वर्ग कर सकते हैं। घाती कर्म आत्मा के मूल गुणों की घात करते हैं । इनमें भी मोहनीय कर्म को राजा कहा गया है। अघाति कर्म भुने हुए बीजवत् हैं जिनमें संसार रूपी बीज को पैदा करने का सामर्थ्य नहीं होता । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि आठ भेद सर्वमान्य हैं। आठ कर्मों की उत्तरप्रकृतियां अनेक हैं।
कर्मबंध : क्यों, कब कैसे ?
आत्मा का मौलिक स्वरूप हैं - अनंत ज्ञान, दर्शन आनंद व शक्ति । ये कभी नहीं बदलते। कितने ही कर्म परमाणु लग जाए, इनमें परिवर्तन नहीं होता । परंतु कर्मों के कारण ही संसारस्थ आत्माएं अशुद्ध हैं । विश्व में कोई भी कार्य कारण के अभाव में नहीं होता । राग और द्वेष कर्मबंध के मुख्य हेतु हैं । आत्मा व कर्म का संबंध अनादि व सांत है। स्वर्ण व मिट्टी, घी व दूध, तिल व तेल के संबंध जैसा ही आत्मा व कर्मों का संबंध है। जैसे मुर्गी व अण्डे, बीज व वृक्ष में कौन पहले, कौन पीछे कह नहीं सकते, ठीक वैसे ही जीव व कर्म की परंपरा अनादि है यह स्वत: सिद्ध है। जीन व कर्म का तादात्म्य संबंध नहीं अपितु आवेष्टन, परिवेष्टन का संबंध है जैसे छडी पर रस्सी । कर्मबंध के प्रकार
प्रकृति, स्थिति, अनुभाग व प्रदेश ये कर्मबंध के चार प्रकार हैं। आवेष्टन
परिवेष्टन का संबंध ही प्रदेश बंध है । जीव के सर्वप्रथम यही बंध होता है,
फिर प्रकृति, स्थिति व अनुभाग इन तीनों का युगपत् बंध होता है। प्रदेश बंध
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જ્ઞાનધારા
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જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
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