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________________ कर्म सिद्धांत का दार्शनिक एवं वैज्ञानिक विश्लेषण समणी ज्योतिप्रज्ञा ( तेरापंथ संप्रदायकी समणी ज्योतिप्रज्ञाजी जैन विश्वभारती लाडनुं में एम.ए. अभ्यासक्रम के छात्रो को अध्ययन कराती है | ) जीवन के कण कण और क्षण क्षण में कर्म रमा हुआ है। चार्वाक के अतिरिक्त प्राय: सभी भारतीय दर्शनोने कर्म शब्द को शब्दांत से स्वीकार किया है। वेदांत दर्शन में माया व अविधा, मीमांसा में अपूर्व, बौद्ध दर्शन में वासना, सीख - दर्शन में आशय, न्यायवैशेषिक में संस्कार आदि शब्द कर्म के लिए प्रयुक्त हुए हैं। कर्मवाद जैन दर्शन का केन्द्र है। जैन दर्शन में कर्म का अस्तित्व स्वरूप प्रकार बंधन न निर्जरण आदि का सांगोपांग विवेचन मिलता है। यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि भगवान महावीर ने कर्मसिद्धांत की जो व्याख्या की, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं है । जैन सिद्धांत दीपिका के अनुसार - आत्मप्रवृत्या कृष्टास्तत्प्रयोग्यपुद्गलाः कर्म । જ્ઞાનધારા अर्थात् आत्मप्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट कर्मप्रयोग्य पुद्गल कर्म कहलाते हैं। हर परमाणु कर्म नहीं बनता, जिस परमाणु में कर्म बनने की योग्यता होती है वही परमाणु कर्म बनता है । ब्रह्माण्ड अनंतानंत परमाणुओं से व्याप्त है किन्तु जीव निकटतम परमाणुओं को ही ग्रहण करता है। कर्म मूर्त रूपी पौद्गलिक है। चहुस्पर्शी कर्मपुद्गल सूक्ष्म है अति: सामान्य व्यक्ति के चर्मचक्षुओं से अदृश्य हैं । कर्म की शक्ति प्रकाश दर्शन और विद्युत तरंगो से सूक्ष्म और જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨ - Jain Education International ૨૪૭ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004539
Book TitleGyandhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Barvalia
PublisherSaurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
Publication Year
Total Pages334
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size13 MB
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