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जयं चिट्ठ जयमासे जयं सये। जयं भुंजतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ। चलना, फिरना, उठना, बैठना, शयन करना सभी में अहिंसा का ध्वनि गुंज रहा है। अहिंसा शाश्वत धर्म है, जिसका उपदेश तीर्थंकर करते हैं। आचारांग सूत्र में कहा गया है- भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी अर्हत् यह उपदेश करते हैं कि किसी भी प्राण, भूत, जीव और सत्व को किसी प्रसार का परिताप, उद्वेग या दु:ख नहीं देना चाहिए, न किसी का हनन करना चाहिए, यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है। सूत्रकृतांग के अनुसार जैसे जीवों का आधार स्थान पृथ्वी है, वैसे ही भूत यानी ज्ञानियों के जीवन का आधार स्थान अहिंसा है।' अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है ।५ जैन-दर्शन में अहिंसा वह आधार वाक्य है जिसमें आचार के सभी नियम निर्गमित होते है। भगवती आराधना में कहा गया है - अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है, सब शास्त्रों का गर्भ है। अहिंसा का आधार :
अहिंसा का मूलाधार जीवन के प्रति सम्मान, समत्वभावना, एवं अद्वैतभावना है। अहिंसा जीवन के प्रति भय से नहीं, सम्मान से विकसित होती है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि सभी प्राणी जीवित.. रहना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता अतः निर्ग्रन्थ प्राणवध का निषेध करते हैं। वस्तुतः प्राणियों के जीवित रहने का नैतिक अधिकार ही अहिंसा के कर्तव्य को जन्म देता है। उत्तराध्ययनसूत्र में समत्व के आधार पर अहिंसा के सिद्धान्त की स्थापना करते हुए कहा गया है कि भय और वैर से मुक्त साधक जीवन के प्रति प्रेम रखने वाले सभी प्राणियों को सर्वत्र अपनी आत्मा के समान जान कर उनकी कभी भी हिंसा न करे। आचारांगसूत्र में तो आत्मीयता की भावना के आधार पर ही अहिंसा सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना की गयी है। इस प्रकार जैनधर्म में अहिंसा का आधार आत्मवत् दृष्टि ही है।
जैनागमों में अहिंसा को भगवती कहा है। अहिंसा दया का अक्षय-पात्र है। जैन-दर्शन में अहिंसा के दो पक्ष है, पहला नहीं मरना और दूसरा मैत्रीकरुणा, दया और सेवा। मनुष्य को अहिंसा की साधना के लिए प्राणी मात्र के
alધારા
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(જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
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