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"जैन दर्शन में अहिंसा मीमांसा"
डॉ. शोभना रसिकलाल शाह
( जैनविद्या ( अनुपारंगत ) हस्तपत्र लिपिका डिप्लोमा प्राप्त - संशोधन संपादक पुस्तकें और लेखों प्रकाशित हुए है। अध्ययन-अध्यापन में विशेष रुचि है ।)
अहिंसा जैनधर्म का प्राणतत्त्व है। विश्व के सभी धर्मोने अहिंसा पर गहरा चिन्तन किया है किन्तु जैन साहित्य में जो सूक्ष्म विवेचन मिलता है वह अन्यत्र नहीं है।
अहिंसा का अर्थ :
नञ पूर्वक हिंसि (हिंस्) हिंसायाम् धातु से अङ् और स्त्रीलिंग में टाप् करने पर अहिंसा शब्द निष्पन्न होता है। कायिक, वाचिक एवं मानसिक हिंसा का सर्वथा अभाव अहिंसा है । द्रव्य एवं भावरूप हिंसा का पूर्णतया निरसन अहिंसा है। मोनियर विलियम्स के अनुसार अहिंसा का अर्थ है
Not injuring anything harmlessness, security, safeness etc. आप्टे की दृष्टि में अनिष्टकारिता का अभाव किसी प्राणी को न मारना, मन, वचन और कर्म से किसी को पीडा न देना आदि अहिंसा है। प्रमाद एवं कषायों के वशीभूत होकर दस प्राणों में से किसी भी प्राण का वियोग न करना अहिंसा है। संक्षेप में हिंसा का अभाव अहिंसा है । '
जैनदर्शन का तो मूलाधार ही अहिंसा है। जैन दार्शनिको ने अहिंसा की सर्वांङ्गपूर्ण व्याख्या की है। इसे श्रेष्ठ धर्म माना गया है- “धम्मो मंगलमुक्किठं अहिंसा संजमो तवो | जैनधर्म की प्रत्येक क्रिया अहिंसामूलक है । “जयं चरे,
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જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
જ્ઞાનધારા
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