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________________ संभव हो सकता है। अपने जीवन को समृद्ध बनाने के लिए हमें वस्तुओं का अधिकतम संग्रह एवं उपभोग करना चाहिए। अमेरिका के लोग आज सन् १९५० की तुलना में वस्तुओं को दुगुना संग्रह एवं उपभोग कर रहे हैं। प्रश्न उठता है कि सन् १९५० की तुलना में क्या वे दुगुना सुखी हैं? यह उपभोक्तावाद का सिद्धांत अनैतिक सिद्धांतो पर आधारित है जहाँ स्वार्थ की भावना ही प्रमुख है तथा सामाजिक कल्याण का महत्त्व गौण है। कहते हैं कि जनसंख्या की असीमित वृद्धि पर्यावरण के विनाश का मुख्य कारण हैं और इसमें कोई संदेह भी नहीं है। लेकिन समृद्ध समुदाय की वस्तुओं के बारे में बढ़ती हुई मांग और तृष्णा भी पर्यावरण विनाश का एक बहुत बड़ा कारण है, इसकी ओर कम ध्यान दिया गया है। The world wide Fund for Nature 7 37451 Living Planet Report में कहा है कि आज वस्तुओं की जितनी मांग बढ़ रही है, उससे लगता है कि पृथ्वी उपग्रह में जितने संसाधन हैं, उनसे ३० प्रतिशत अधिक संसाधनों की आवश्यकता होगी। इसमें आगे कहा गया कि यदि अविकसित देशों के व्यक्ति भी विकसित देशों के लोगों के समान अपनी आवश्यकताओं की अभिवृद्धि करते रहेंगे तो उनकी मांग की पूर्ति के लिए और दो पृथ्वी उपग्रहों की आवश्यकता पड़ेगी। रिओ डि जेनैरो में सन् १९९२ में आयोजित पृथ्वी शिखर सम्मेलन में यह भाव व्यक्त किया गया कि "विश्व में पर्यावरण के निरंतर होने वाले हास का मुख्य कारण विकसित राष्ट्रों की बढ़ती हुई माँगे तथा उनका अत्यधिक उपयोग है, यदि इसे नियन्त्रित नहीं किया गया तो पर्यावरण का संकट बढ़ता ही जायेगा।" इस परिस्थिति में जैन धर्म के मूल्यों की क्या भूमिका है, इस पर भी विचार किया जाना आवश्यक है। भगवान् महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र में कहा, “जहाँ पर भौतिक पदार्थों के अत्यधिक-संग्रह एवं उनके उपयोग की भावना रहती है, वहाँ पर परिग्रह एवं तृष्णा की वृद्धि हो जाती है।” तृष्णा से मनुष्य के मन में और अधिक वस्तुओं का संग्रह करने की भावना जगती है। इस प्रकार की अति संग्रह की भावना अशान्ति में परिणत हो जाती है। केवल अपने स्वार्थ को ही बढ़ाते चले जाना मानवीय उच्च भावनाओं यथा करूणा (જ્ઞાનધારા (જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004539
Book TitleGyandhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Barvalia
PublisherSaurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
Publication Year
Total Pages334
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size13 MB
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