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अहिंसा : प्राणी-संरक्षण का मन्त्र...
दुलीचन्द जैन
(साहित्यालंकार है । विवेकानंद विद्याकलाश्रम का ट्रस्टी है, ६ ग्रंथ का संपादन - संकलन कीया है दक्षिण भारत जैन स्वाध्याय संघ पर्युषण व्याख्यानमाला में प्रवचन देते है ।)
अहिंसा धर्म का आधार है। इसी के द्वारा समाज का सुचारू रूप से सञ्चालन संभव है। यही वह गुण है जो प्रत्येक जीव को सम्मान प्रदान करता है। दया एवं करुणा की अभिव्यक्ति इसी जीवन मूल्य में होती है। इसका व्यवहार विश्व में शान्ति एवं सौहार्द लाता है ।
भगवान् महावीर ने कहा कि धर्म उत्कृष्ट मंगल है | अहिंसा, संयम और तप उसके लक्षण हैं। जिसका मन सदा धर्म में रमता रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। उनके ही शब्दों में, “किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये, यही ज्ञानियों के ज्ञान का सार है । अहिंसा, समता, समस्त जीवों के प्रति आत्मवत् भाव यही शाश्वत धर्म है।” उन्होंने जीवों के प्रति समादर के भाव पर जोर देते हुए कहा, "सभी प्राणियों को अपनी-अपनी आयु (जीवन) प्रिय है। सुख अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल है । वध सबको अप्रिय है, जीवन सबको प्रिय है। अतः किसी भी जीव को त्रास नहीं पहुंचाना चाहिये, किसी के प्रति वैर और विरोध का भाव नहीं रखना चाहिये ।"
आज का मनुष्य अहिंसा के उपर्युक्त मूल्यों को भूल गया है । परिणामस्वरूप आज विश्व में हिंसा, अशान्ति तनाव, जीवन-मूल्यों का अवमूल्यन, सौहार्द का अभाव एवं आतंक बढ़ता ही जा रहा है। आइए हम उन उपायों पर विचार करें जो मानवता को वास्तविक सुख प्रदान करने में
જ્ઞાનધારા
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જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
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