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समर्थ हो सकते हैं ।
मनुष्य : क्या मात्र एक आर्थिक यन्त्र है ?
आधुनिक सभ्यता, जो पूर्णत: भौतिकवाद पर आधारित है, ने मनुष्य के व्यक्तित्व को संकुचित करके उसे मात्र एक आर्थिक यन्त्र बना दिया है। आधुनिक युग में मनुष्य ने बहुत सारी विचारधाराओं का सहारा लिया ताकि वह पूर्ण समृद्ध एवं सुखी बन सके। लेकिन क्या उसे सुख एवं आनंद प्राप्त हुआ ? नहीं, आज मनुष्य को समृद्धि तो प्राप्त हुई है, लेकिन वह मानसिक शान्ति प्राप्त नहीं कर सका । समृद्धि भी कुछ चुने हुए वर्ग के लोगों को मिली। कुछ वर्षों पहले साम्यवाद का बहुत बड़ा प्रभाव था और लगता था कि यह सारे विश्व को लाल रंग में रंग देगा। इसके प्रचारकों ने कहा कि हम गरीब एवं शोषित वर्ग को सम्पन्नता एवं गौरव प्रदान करेंगे, सामान्य व्यक्ति के जीवन को ऊंचा उठायेंगे, सब में समानता लायेंगे लेकिन मात्र १०० वर्षों से भी कम समय में यह असफल सिद्ध हुआ। वहाँ के देशों की सामान्य जनता ने ही इस विचारधारा का विरोध किया क्योंकि जीवन की आवश्यक वस्तुओं के अभाव से उनका जीवन त्रस्त हो गया था। दूसरी बड़ी विचारधारा पूँजीवाद की है, जिसका नायक अमेरिका है। इसका उद्देश्य है, प्रकृति के संसाधनों का अधिकतम उपभोग | यह भोगवाद पर आधारित है। आज वैज्ञानिक उपकरणोंने सामान्य व्यक्ति के जीवन को बहुत सारी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध करा दी है, लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या मनुष्य का जीवन पहले से अधिक सुखी एवं सौहार्दपूर्ण है ? उत्तर नकारात्मक ही है। भौतिकता प्रधान पाश्चात्य युग की चकाचौंध का भीतरी पक्ष कितना अभिशाप - ग्रस्त है, यह एक गंभीर विषय है।
टूटते परिवार
हाल ही में ब्रिटेन से प्रकाशित सुप्रतिष्ठित पत्र “दि इकोनॉमिस्ट” ने एक
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रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसने पाश्चात्य जगत् के विचारकों को भी चौंका दिया है । शीर्षक है " इक्कीसवीं शताब्दी में अमरीकी परिवार का भविष्य" । यह रिपोर्ट शिकागो विश्व विद्यालय में राष्ट्रीय मत अनुसन्धान
જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
જ્ઞાનધારા
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