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यह जितना आवश्यक है, उतना ही जीवन और जगत् की विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए भी । वर्गभेद, जातिभेद आदि विभिन्न विषमताओं में समत्व और शान्ति का समाधान समता या समताचार ही है । मानवीय मूल्यों में जीवन को नियन्त्रित और नीतियुक्त बनाये रखने की क्षमता एकमात्र समता युक्त अहिंसा आचरण में ही है । युद्ध, विद्वेष और शत्रुता से मानव समाज की रक्षा करने के लिए हेतु विधायक शब्द का प्रयोग करें तो वह समाचार कुटुम्ब, समाज, शिक्षा, व्यापार, शासन, संगठन प्रभृति में मर्यादा और नियमों की प्रतिष्ठा करता है, मानवीय मूल्यों की स्थापना करता है और प्राणी जगत् में सुख-कल्याण का प्रादुर्भाव करता है।
मूलाचार ग्रन्थ में समताचार की महत्ता बतलाते हुए लिखा हैसमदा समाचारो सम्मांचारो समो वा सव्वेसिं हिंसमाणं सामाचारो
आचारो ।
आचारो ।।
दु अपने देश की गौरवपूर्ण परम्पराओं के अनुकूल विश्वशान्ति के लिए समताचार अहिंसा की साधना अत्यावश्यक है। आज की परिवर्तित होती हुई परिस्थितियों और जीवन मूल्यों के अनुसार समाज और समूह के संघर्ष की समाप्ति का एक मात्र उपाय अहिंसाचरण ही है ।
जैन संस्कृति अहिंसा के विषय में पग-पग पर सन्देश देती हुई अग्रसर होती है। जैन संस्कृत के वरिष्ठ विद्यायकों के अन्तःकरण में समूचे विश्व को ही नहीं, प्राणीमात्र का स्पन्दन अपनी आत्मा में सुनाई पड़ता है। इस स्पन्दन में सुख भी होता है, अपार दुःख भी और तभी उस अपार दुःख के प्रति अन्तराल की गहराईयों से करुणा फूट पड़ती है । व्यक्ति व्यष्टि से निकलकर समिष्टि के रूप में दुःख निवारण की बात सोचने लगता है । यहीं अहिंसा के जन्म की पृष्ठभूमि है।
अहिंसा की मूलभावना प्राणीमात्र को जीने का अधिकार प्रदान करती है । अपने आप में जीना कोई जीवन है ? वह तो एक मशीनी जीवन है। जो अपना होकर नहीं रहता, वास्तव में वही सबका होकर जीता है। जैन संस्कृति के नियामकों का हृदय इसी भावना से अनुप्राणित था । इसलिए उन्होंने समवेत
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જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
જ્ઞાનધારા
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