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________________ स्वर में कहा सब जीव संसार में जीना चाहते हैं । मरना कोई नहीं चाहता । क्योंकि एक गन्दगी के कीड़े और स्वर्ग के अधिपति - इन्द्र दोनों के हृदय में जीवन की आकांक्षा और मृत्यु का भय समान है। अतः सबको अपना जीवन प्यारा है । इसीलिए सोते - उठते, चलते-फिरते तथा छोटे-बड़े प्रत्येक कार्य को करते हुए यह भावना हर व्यक्ति की होनी चाहिए कि जब मेरी आत्मा सुख चाहती है तो दूसरों को भी सुख भोगने का अधिकार है। जब मुझे दुख प्यारा नहीं है तो संसार के अन्य जीवों को कहां से प्यारा होगा ? अतः स्वानुभूति के आधार पर हिंसात्मक प्रवृत्तियों से हमेशां बचकर रहना चाहिये । जियो और जीने दो, अहिंसा का यह स्वर्णिम सूत्र उसी सर्वभूतदया की भावना से प्रसूत है, जहाँ जीव के सारे भेद समाप्त हो जाते हैं। अन्य संस्कृतियों के करूणा की भावना अवश्य है, प्रसंगवश हिंसा - विरोधात्मक उपदेश भी दिये गये हैं, किन्तु उनमें जैनधर्म की इस उदारता की मिशाल पाना कठिन है । इसलिए शायद जीवदया की क्रिया को सबसे श्रेष्ठ एवं चिन्तामणि रत्न के समान फल देने वाली मानी गयी है। तथा अहिंसा के माहात्म्य से मनुष्य चिरंजीवी, सौभाग्यशाली, ऐश्वर्यवान, सुन्दर और यशस्वी होता है, यह स्वीकृत किया गया है। अहिंसा - स्वरूप : जैन आचार्यों ने अहिंसा क्या है, इस प्रश्न को बड़ी सूक्ष्म और सरल विधि से समझाया है । सर्वप्रथम उन्होंने हिंसा का स्वरूप निर्धारित किया । तदुपरान्त उससे विरत होने की क्रिया को अहिंसा का नाम दिया। बात ठीक भी है, जब तक हम वस्तु के स्वरूप को न समझ लें, उससे सम्भावित हानिलाभ से अवगत न हो जायें तब तक उसे छोड़ने का प्रश्न ही कहाँ उठता है । हिंसा का सर्वांगपूर्ण लक्षण अमृतचन्द्राचार्य के इस कथन में निहित हैकषाय के वशीभूत होकर द्रव्यरूप या भावरूप प्राणों का घात करना हिंसा है । यह लक्षण समन्तभद्राचार्य द्वारा प्रणीत अहिंसाणुव्रत के लक्षण जैसा ही परिपूर्ण है। सर्वार्थसिद्धि एवं तत्त्वार्थ- राजवार्तिक में इसी का समर्थन किया गया है। अहिंसा और हिंसा का जैसा वर्णन पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में है वैसा पूर्व या उत्तर कें ग्रन्थ में नहीं मिलता है। हिंसा के लक्षण में मनकी दुष्प्रवृत्ति पर अधिक जोर જ્ઞાનધારા ૨૧૬ જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004539
Book TitleGyandhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Barvalia
PublisherSaurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
Publication Year
Total Pages334
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size13 MB
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