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अहिंसा : प्राणी-संरक्षण का मन्त्र....
प्रो. प्रेमसुमन जैन
( ओम. ओ. पीओच. डी. उदेपुर. संस्कृत पाली, प्राकृत, जैनधर्म तथा भारतीय संस्कृतिका विशेष अध्ययन जैनविद्या पर अनेको पुस्तकों का प्रकाशन १५० शोधपत्र प्रकाशित विदेश में व्याख्यान अनेको पुरस्कार प्राप्त किया है ।)
जैनधर्म में समता, सर्वभूतदया, संयम जैसे अनेक शब्द अहिंसा आचरण के लिए प्रयुक्त हैं । वास्तव में जहाँ भी राग-द्वेषमयी प्रवृत्ति दिखलायी पड़ेगी वहाँ हिंसा किसी न किसी रूप में उपस्थित हो जाएगी । सन्देह, अविश्वास, विरोध, क्रूरता और घृणा का परिहार प्रेम, उदारता, और सहानुभूति के बिना संभव नहीं है। प्रकृति और मानव दोनों की क्रूरताओं का निराकरण संयम द्वारा ही संभव है। इसी कारण जैनाचार्यों ने तीर्थ का विवेचन करते हुए कषायरहित निर्मल संयम की प्रवृत्ति को ही धर्म कहा है। यह संयमरूप अहिंसाधर्म वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में समता और शान्ति स्थापित कर सकता है। इस धर्म का आचरण करने पर स्वार्थ, विद्वेष, सन्देह और अविश्वास को कहीं भी स्थान नहीं है । व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों का परिष्कार भी संयम या अहिंसक प्रवृत्तियों द्वारा ही संभव है । कुन्दकुन्दस्वामी ने बताया हैजं णिम्मलं सुधम्मं सम्मत्तं संजमं तवं गाणं ।
तं तित्थं जिणमग्गे हवेई जदि संतिभावेण ।।
आगम ग्रन्थों में कहा गया है कि राग-द्वेष का अभावरूप समताचरण ही व्यक्ति और समूह के मूल्यों को सुस्थिर रख सकता है। आत्मोत्थान के लिए
જૈનસાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૨
જ્ઞાનધારા
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