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________________ “वंदामीति वन्दे भद्रबाहुं प्राचीनगोत्रोत्पन्नं चरमसकलश्रुतज्ञानिनं श्रुतकेवलिनमित्यर्थः / तेन सूत्राणां दशाश्रुतस्कन्धबृहत्कल्पव्यवहाराणां सूत्रयितारम् / सूत्रत्वममीषां सम्पूर्णम् / चतुर्दशपूर्वधरविरचितत्वेन तथोच्यते-सुत्तं गणहर-रइयं तहेव पत्तेयबुद्धरइयं सुकेवलिणा रइयं अभिन्नदसपुविणा रइयमिति / नन्वेवं श्रावकस्य नियुक्त्यादिदानिर्युक्तीनामपि समानकर्तृत्वेन सूत्रत्वमापन्नम्, आपद्यतान्नाम तासमपि समवायांगे सूत्रात्मकप्रतिपादनात् / तथाहि-"आचारस्स णं परित्ता वायण संखिज्जा अणुओ गदारा संखिज्जाओ पडिवत्तीओ संखिज्जा वेढा, संखिज्जा सिलोगा संखिज्जाओ निज्जुत्तीओ | से णं अंगठ्ठयाए पढ़मे अंगे दो सुयकखंधा बीसं अज्झयणेत्यादि” वाचनादीनाञ्चाचाराङगसरूप निरूपणेनाचाराङगत्वमुक्तम् / तथा च स्वतः सिद्धं निर्युक्तेः सूत्रत्वम् / अत एवोच्यतेऽनुयोगद्वारसूत्रमिति नियुक्तिरप्यनुयोग एवेत्यलमतिप्रसङगेन अथ किं निमित्तम् / तस्य नमस्कारः क्रियते / स चोच्यते सूत्रकारको न त्वर्थकारकः / अर्थो हि तीर्थकृद्भ्यः प्रसूतो येनोच्यते "अत्थं भासइ अरिहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं सासणस्स हियट्ठाए तओ सुत्तं प्रवत्तइति” कृतं सूत्रं दशाः कल्पो व्यवहारश्च कुतस्तत् (स्व) सुद्धृतमुच्यते, प्रत्याख्याननवपूर्वात्, अयं गाथा केनापि निर्युक्त्यनुयोगविधायिनाचार्येण स्वशिष्येभ्यो निर्युक्त्यनुयोगप्रतिपादनावसरे पारम्पर्यप्रदर्शनाय दशाश्रुतस्कन्धादिकर्तृत्वप्रतिपादनाय श्रीभद्रबाहवे नमस्करणाय च प्रतिपादितास्तीति सम्भाव्यते / स्वेनैव स्वस्य नमस्कृते रनुपपद्यमानत्वात् / नहि महान्तो निकृष्टजनोचितं स्वमुखेन स्वस्ववर्णनमाद्रियन्ते / द्दश्यते ते च सत्प्रतिपादकसत्यप्रतिपाद्यगुरुशिष्यपरम्पराया तत्त्वेन स्ववचसि प्रत्योत्पादनाय तत्र-तत्र ज्ञाता धर्मकथादे: सुधर्मजम्बूस्वाम्यादीनां वर्णनं प्रभवादिभिर्लिखितमित्य एव 'तित्थयरे भंते' इत्यादि / इस प्रकार इस वृत्ति में श्री भद्रबाहु स्वामी इस सूत्र के सम्पादन करने वाले माने गये हैं / इसके अतिरिक्त दशवी दशा की समाप्ति में भी वृत्तिकार इस प्रकार लिखते हैं: “स्वमनीषिकापरिहाराय भगवान् भद्रबाहुस्वामी प्राह तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि / इस कथन से यह भी भली भांति सिद्ध किया गया है, भद्रबाहुस्वामी ने जो कुछ भी वर्णन किया है वह सब श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी के कथन का ही अनुवाद-मात्र है। अपनी बुद्धि से उन्होंने कुछ भी नहीं कहा / यह प्रत्येक दशा के अन्त में भी स्पष्ट किया गया है / उपर्युक्त विवरण से पाठकों को इस बात के समझने में कोई भी बात अवशिष्ट न रही कि वास्तव में इस सूत्र के मूल प्रणेता तो श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ही -
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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