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________________ योगोऽनुयोगः / " इस कथन से वृत्तिकार का यही तात्पर्य है कि गणधरों ने ही सब से पहले सूत्रों का प्रणयन किया, अतः दशाश्रुतस्कन्धसूत्र भी गणधरों का ही प्रतिपादित है / इस कथन से यही सिद्ध हुआ कि अन्य सूत्रों के समान इस सूत्र को भी गणधरों ने ही रचा / किन्तु शंका यह उपस्थित होती है कि जहां अन्य गणधरों के प्रतिपादित सूत्रों के प्रारम्भ में केवल 'सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं' इतना ही पाठ मिलता है वहां इस सूत्र के आदि में 'इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं बीस असमाहिठाणा पण्णत्ता' इतना पाठ अधिक मिलता है। इससे प्रतीत होता है कि गणधर-कृत सूत्रों से आचार-विषयक सूत्रों का संग्रह करके नूतन शिष्यों के बोध के लिए स्थविर भगवन्तों ने ही इस सूत्र की रचना की, क्योंकि इस में स्थविरों का कर्तृत्व स्पष्ट रूप से मिलता है / 'प्रज्ञप्ताः' कृदन्त रूप का कर्ता यहां स्थविर ही हैं, गणधर नहीं / वृत्तिकार यह भी निर्णय करते हैं कि इस सूत्र का सम्पादन श्री भद्रबाहु स्वामी जी महाराज ने किया है / यह बात उन्होंने उक्त सूत्र की ही निम्नलिखित वृत्ति से स्पष्ट कर दी है:--'सुयं मे' इत्यादि-सूत्रस्यार्थः समुन्नीयते-भगवान् भद्रबाहुस्वामी स्वशिष्यं स्थूलभद्रमिदमाचष्टे:-श्रुतमाकर्णितं गुरुपर्यायेण, मे-मया, आउसंति-आयुर्जीवितं तत्संयमप्रधानतया प्रशस्तं प्रभूतं यस्य स आयुष्मान्, तस्यामन्त्रणं हे आयुष्मन् ! शिष्य ! तेणंतियः सन्निहित-व्यवहितसूक्ष्मस्थूलबाह्याध्यात्मैकसकलपदार्थेषु अव्याहतवचनतयाप्तत्वेन जगति प्रतीत-स्तेन महावीरेण भगवता ज्ञानाद्यैश्वर्य युते नै वामुना वक्ष्यमाणेन विंशत्यादिना प्रकारेणा-ख्यातमसंकीर्णमाश्राद्धसाधुकरणीयलक्षणरूपेण विधिनाथवा हेयोपादेयरूपसमस्तवस्तु-विस्तारलक्षणेन व्यापारलक्षणेनाख्यातं कथितमिहार्हद्वचने खलु वाक्यालङ्कारे स्थविरैर्गणधरैः सुधर्मजम्बूभद्रबाहादिश्रुतकेवलिभिर्विशतिरसमाधिस्थानानि असमाधेरसमा-धानस्य स्थानानि पदानि प्रज्ञप्तानि प्रतिपादितानि इति' इस वृत्ति में स्थाविर शब्द से सुधर्मस्वामी, जम्बूस्वामी और भद्रबाहुं आदि सभी श्रुत-केवलियों का ग्रहण किया गया है / दशाश्रुतस्कन्धसूत्र के निरुक्तिकार भी इसी मत की पुष्टि करते हैं / वे लिखते हैं “वंदामि भद्दबाहुं पाईण चरिमसयलसुयनाणिं सुत्तस्स कारगमिसं दसासु कप्पे य ववहारे" इसका भाव यह है कि मैं चरम-सकल-श्रुतज्ञानी और दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र, बृहत्कल्प और व्यवहारसूत्र के रचयिता श्री भद्रबाहु स्वामी को नमस्कार करता हूं। मतिकीर्ति गणि जी ने इस पर वृत्ति लिखते हुए इसे और भी स्पष्ट कर दिया है / इस वृत्ति से और भी कई एक शंकाओं का समाधान हो जाता है / अतः हम पाठकों की सुविधा के लिए उस वृत्ति को भी यहां दे देते हैं:
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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