________________ - दशमी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / देव-लोक में देव-रूप से उत्पन्न होता है, जिससे उसके करने वाले: व्यक्ति में शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवासादि के ग्रहण करने की भी शक्ति उत्पन्न नहीं होती / टीका-इस सूत्र में संक्षेप से श्रावक के गुणों का वर्णन किया है / वह निदान-कर्म करने वाला श्रावक जीव और अजीव को जानने वाला होता है / उसकी हड्डी और मज्जा कोने-२ में धर्म के राग से रंगी होती है / हड्डियों के बीच में जो चिकना पदार्थ होता है उसको मज्जा कहते हैं / कहने का तात्पर्य यह है कि उसके रोम-२ में धर्मानुराग भरा रहता है / श्री भगवान् की वाणी पर उसकी बड़ी श्रद्धा और भक्ति होती है / इसी कारण वह 'निर्ग्रन्थ-प्रवचन' को ही सर्वत्र और सत्य-रूप देखता है / शेष जितनी भी सांसारिक क्रियाएं हैं उनको वह तुच्छ दृष्टि से देखता है / इस प्रकार बहुत वर्षों तक दर्शन-श्रावक की वृत्ति को भली भांति पालन कर मुत्यु के अनन्तर वह देव-लोक में उत्पन्न हो जाता है | श्री भगवान् कहते हैं कि हे आयुष्मन् ! श्रमण ! उस निदान कर्म के कारण से वह श्रावक के द्वादश व्रतों को ग्रहण नहीं कर सकता / यही उसका पाप-रूप फल-विपाक है / श्रावक-वृत्ति का कुछ वर्णन आठवें निदान-कर्म के अधिकार में किया जायगा / वृत्तिकार इस विषय में इस तरह लिखते हैं : “एवंविधगुणविशिष्टः स बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासकपर्यायं परिपालयति / केवलेनापि सम्यक्त्वेन श्रावक उच्यत इत्याकूतम् / अतएव भरतोऽपि दर्शन-श्रावक उच्यते, अस्यामेव क्रियायां प्रधानतरत्वात् / " भरत भी दर्शन-श्रावक कहा जाता है, शेष वर्णन सुगम ही है | - अब सूत्रकार आठवें निदान-कर्म का वर्णन करते हैं : एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पण्णत्ते तं चेव सव्वं जाव / से य परक्कममाणे दिव्वमाणुस्सएहिं कामभोगेहिं निव्वेदं गच्छेज्जा माणुस्सगा कामभोगा अधुवा जाव विप्पजहणिज्जा दिव्वावि खलु कामभोगा अधुवा, अणितिया असासया चलाचलणधम्मा पुणरागमणिज्जा पच्छापव्वं च णं अवस्सं विप्पजहणिज्जा | संति इमस्स तवनियमस्स जाव आगमेस्साणं