________________ 432 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् दशमी दशा बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासक-पर्यायं पालयति बहूनि वर्षाणि पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वान्यतरेषु देव-लोकेषु देवतयोपपत्ता भवति / एवं खलु श्रमण ! आयुष्मन् ! तस्य निदानस्यैतद्रूपः पापकः फल-विपाको यन्न शक्नोति शीलवत-गुणव्रत-पौषधोपवासानि प्रतिपत्तुम् / पदार्थान्वयः-अभिगतजीवाजीव-जो जीव और अजीव को जानता है जाव-यावत् श्रावक के गुणों से युक्त है अतः अद्विमिज्जा-हड्डी और मज्जा में पेमाणुरागरत्ते-धर्म के प्रेम-राग से अनुरक्त है आउसो-हे आयुष्मन् ! अयं-यह निग्गंथ-पावयणे-निर्ग्रन्थ-प्रवचनरूप धर्म ही अट्टे-सार्थक और सत्य है परमढे-यही परमार्थ है सेसे-शेष अणढे-अनर्थ अर्थात् . मिथ्या है, संसार-वृद्धि का कारण है से णं-फिर वह एतारूवेणं-इस प्रकार के विहारेणं-विहार से विहरमाणे-विचरता हुआ बहूइं-बहुत वासाइं-वर्ष तक समणोपासग-श्रमणोपासक परियागं-पर्याय को पाउणइ-पालन करता है फिर बहूई-बहुत वासाई-वर्ष तक परियागं-श्रमणोपासक के पर्याय को पाउणित्ता-पालन कर कालमासे-मृत्यु के समय कालं किच्चा-काल करके अण्णतरेसु-किसी एक देवलोएसु-देव-लोक में देवत्ताए-देवरूप से उववत्तारो भवति-उत्पन्न होता है / समणाउंसो-हे आयुष्मन् ! श्रमण ! एवं खलु-इस प्रकार तस्स-उस णिदाणस्स-निदान का इमेयारूवे-यह इस प्रकार का पावए-पापरूप फलविवागे-फल-विपाक होता है जं-जिससे सीलव्वय-शील-व्रत गुणव्वय-गुण-व्रत और पोसहोववासाइं-पौषधोपवास आदि पडिवज्जित्तए-ग्रहण करने की णो संचाएति-शक्ति नहीं रहती अर्थात् उस निदान कर्म के प्रभाव से श्रावक के बारह व्रतों के धारण करने की शक्ति, निदान-कर्म करने वाले में, नहीं रहती है, अपितु वह दर्शन-श्रावक ही रह जाता है / मलार्थ-वह जीव और अजीव को जानता है और श्रावक के गुणों से सम्पन्न होता है, उसकी हड्डी और मज्जा में धर्म का अनुराग कूट-२ कर भरा रहता है, हे आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन ही सत्य और परमार्थ है / शेष सब अनर्थ है / इस प्रकार के विहार से विचरता हुआ बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक के पर्यायों का पालन करता है और फिर उस पर्याय का पालन कर मृत्यु के समय काल करके किसी एक