________________ - - - दशमी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 431 केवलि-भाषित धर्म में श्रद्धा, विश्वास और रुचि करने लग जाता है, किन्तु यह सम्भव नहीं कि वह शील, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवासादि व्रतों को ग्रहण करे | वह दर्शन-श्रावक हो जाता है | टीका-इस सूत्र में सातवें निदान-कर्म का फल वर्णन किया गया है / पूर्वोक्त निदान-कर्म कर वह निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी देव-लोक में अपने संकल्पों के अनुसार सुखों का अनुभव करता है / वह पूर्वोक्त दैविक ऐश्वर्य का अच्छी तरह उपभोग करता है / शेष सब वर्णन पूर्ववत् ही है किन्तु विशेषता केवल इतनी ही है कि वह केवलि–भाषित धर्म पर श्रद्धा, विश्वास और रुचि करने लग जाता है किन्तु वह शील-व्रत, गुण-व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा अष्टमी आदि पर्व-दिनों में पौषधोपवासादि क्रियाएं ग्रहण नहीं कर सकता / यह फल उसको उक्त निदान-कर्म का मिलता है कि वह केवल दर्शन-श्रावक ही रह जाता है अर्थात् सम्यक्त्व की प्राप्ति की अपेक्षा से या सम्यक्त्व के आश्रित होने से उसको दर्शन-श्रावक कहते हैं / इसके विषय में वृत्तिकार लिखते हैं “सम्यक्त्वं तदाश्रित्य श्रावको निगद्यते' अर्थात् सम्यक्त्व के आश्रित होने के कारण उसको दर्शन-श्रावक कहा जाता है। फिर सूत्रकार इसी से सम्बन्ध रखते हुए कहते हैं : अभिगत-जीवाजीवे जाव अहि-मिज्जा-पेमाणुरागरत्ते 'अयमाउसो निग्गंथ-पावयणे अढे एस परमटे सेसे अणढे | सेणं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूई वासाइं समणोवासग-परियागं पाउणइ बहूई वासाइं पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति / एवं खलु समणाउसो तस्स णिदाणस्स इमेयारूवे पावए फल-विवागे जं णो संचाएति सीलव्वय-गुणव्वय-पोसहोववासाइं पडिवज्जित्तए / अभिगत-जीवाजीवो यावदस्थिमज्जाप्रेमानुरागरक्तोऽयम्, आयुष्मन् ! निर्ग्रन्थ-प्रवचनोऽर्थः परमार्थः शेषोऽनर्थः / स नु एतद्रूपेण विहारेण विहरन्