________________ शा 268 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् नवमी दशा प्रमण क मूलार्थ-हे आर्यो ! इस प्रकार प्रारम्भ कर श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने बहुत से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को आमन्त्रित कर कहा “हे आर्यो ! तीस मोहनीय कर्म के स्थान हैं, जिनका वर्णन किया जायगा / स्त्री या पुरुष सामान्य या विशेष रूप से पुनः-पुनः इनका आसेवन करता हुआ मोहनीय कर्म के प्रभाव से बुरे कर्मों को एकत्रित करता है" | . टीका-इस सूत्र से सब से पहले यह शिक्षा मिलती है कि परोपकारी पुरुष को दूसरों के बिना कहे ही उपकार की बुद्धि से हित-शिक्षाएं प्रदान करनी चाहिएं / जैसे श्री भगवान् ने हित-बुद्धि से स्वयं साधु और साध्वियों को आमन्त्रित कर शिक्षित किया “हे आर्यो ! वक्ष्यमाण तीस कारणों से स्त्री या पुरुष मोहनीय कर्म का उपार्जन करते हैं और उनके कारण वे मुक्ति के अभाव से संसार-चक्र में कोई भी सामान्यतया अथवा विशेष रूप से वक्ष्यमाण कर्मों का आचरण करते हुए मोहनीय कर्म के बन्धन में आ जाता है / जिस प्रकार जिनके अध्यवसाय होते हैं उसी प्रकार के कर्मों की वे उपार्जना भी करते हैं / अतः इन तीस स्थानों को अच्छी तरह जान कर इनसे बचने का प्रयत्न करना चाहिए / अब सूत्रकार गाथाओं के द्वारा मोहनीय कर्म के तीस स्थानों का वर्णन करते हैं :- ! जे केइ तसे पाणे वारिमझे विगाहिआ / उदएण क्कम्म मारेइ महामोहं पकुव्वइ ||1|| यः कश्चित्त्रसान् प्राणान् वारि-मध्ये विगाह्य / उदकेनाक्रम्य मारयति महामोहं प्रकुरुते ||1|| पदार्थान्वयः-जे-जो केइ-कोई तसे-त्रस पाणे-प्राणियों को वारिमज्झे-पानी में विगाहिआ-डुबकियां देकर उदएण-जल से क्म्म-आक्रमण कर मारेइ-मारता है वह महामोह-महा मोहनीय कर्म की पकुव्वइ-उपार्जना करता है / मूलार्थ-जो व्यक्ति त्रस प्राणियों को पानी में डुबकियां देकर जल के आक्रमण से मारता है वह महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है / 3 000