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________________ 248 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् सप्तमी दशा भाग आदि में न जाए नो चरिमे चरेज्जा-नाहीं चरम भाग में जावे / यदि चरमे-चरम भाग में चरेज्जा-जावे तो णो आदि चरेज्जा-आदि भाग में न जावे नो मज्झिमे चरेज्जा-नाहीं मध्य भाग में जावे / __ मूलार्थ-मासिकी भिक्षु-प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार के दिन के तीन भाग-आदि, मध्य और चरम-गोचर-काल प्रतिपादन किये गये हैं / उनमें से यदि आदि भाग में भिक्षा के लिए जाय तो मध्य और चरम भाग में न जावे | यदि मध्य भाग में जावे तो आदि चरम भाग में न जावे / यदि चरम (अन्त्य) भाग में जावे तो आदि और मध्य भाग में न जावे | टीका-इस सूत्र में प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार के गोचर-काल के विषय में प्रतिपादन किया गया है / एक मासिकी प्रतिमा वाले मुनि के गोचर सम्बन्धी तीन काल कहे गए हैं-दिन का पहला भाग, दूसरा भाग और तीसरा भाग अर्थात् आदिम, मध्यम और अन्तिम ग। यदि कोई भिक्ष दिन के प्रथम भाग में गोचरी के लिए जाता है तो उसको मध्यम और अन्तिम भाग में नहीं जाना चाहिए तथा जो अन्तिम. भाग में जावे वह प्रथम और मध्यम भाग में नहीं जा सकता अर्थात् जो किसी भी एक भाग में जाता है वह शेष दो भागों में नहीं जा सकता / भिक्षा को जाने से पूर्व प्रत्येक को ज्ञान कर लेना चाहिए कि उसके अन्य तीर्थ्य किस समय जाते हैं / जिस भाग में वे लोग जायँ उस समय उसको नहीं जाना चाहिए / किन्तु यह बात उसकी अपनी इच्छा पर निर्भर है / ___ अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि 'गोचर-काल' किसे कहते हैं ? उत्तर में कहा जाता है कि गाय के चरने के समान भिक्षा ग्रहण करने का नाम 'गोचरी' है अर्थात् जिस प्रकार गौ ऊंच नीच तृणों को सम-भाव से ग्रहण करती है और तृणों को जड़ से उखाड़ कर नहीं फेंक देती इसी प्रकार मनि को भी ऊंचे नीचे सब घरों से भिक्षा सम-भाव से ही अपनी विधि-पूर्वक ग्रहण करनी चाहिए, जिससे सब घरों से भिक्षा सम-भाव से ही अपनी विधि-पूर्वक ग्रहण करनी चाहिए, जिससे गृहस्थ को किसी प्रकार दुःख न हो / अतः जो काल भिक्षा का हो उसी को गोचर-काल कहते हैं / जब साधु भिक्षा के लिए किसी गृहस्थ के घर में जावे तो उसका ध्यान उस वत्स के समान हो जो सब अलङ्कारों से भूषित किसी परम सुन्दरी के हाथ से अन्न या पानी लेता है किन्तु उसका ध्यान भोजन के सिवाय खिलाने वाली के रूप और अलङ्कारों पर नहीं होता / भिक्षु का भाव भी केवल भिक्षा पर ही होना चाहिए, गृहस्थों के पदार्थों पर नहीं / . be
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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