________________ . है 236 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् षष्ठी दशा अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रतिमाधारी श्रमणोपासक को भिक्षा देने में निर्जरा है या नहीं ? उत्तर में कहा जाता है कि दान का फल क्षेत्रा(पात्रा)नुसार होता है / जिस प्रकार के क्षेत्र में धान्य बीजा जाता है उसी प्रकार का फल होता है / इसी प्रकार जैसे पात्र-सपात्र या कपात्र-को दान दिया जायगा उसी प्रक कहा भी है “समणोवासगस्स णं भंते / तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुयएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जति ? गोयमा ! एमं तसा निज्जरा कज्जइ / नत्थि य से पावे कज्जइ / " इस सूत्र में तथा-रूप 'श्रमण' या 'माहन' शब्द आए हैं / उनकी व्याख्या करते हुए अभयदेव सूरि इस प्रकार लिखते हैं “माहणस्स त्ति”-मा हन इत्येवमा-द्विशति स्वयं स्थूल-प्राणातिपात-निवृतत्वाद् यः स माहनो वा ब्राह्मणो वा / ब्रह्मचर्यस्य देशतः सद्भावाद् ब्राह्माणोऽपि देश-विरत इत्यादि / अर्थात् तथा-रूप श्रवण या माहन को प्रासुक (अचित्त) आहार देने से एकान्त निर्जरा होती है / शेष स्वयं जान लेना चाहिए / सब प्रतिमाओं का काल मिलाकर साढ़े पांच वर्ष होता है / इस काल को समाप्त कर उपासक या तो दीक्षित हो जाता हे या पुनः प्रतिमा धारण करता है / यदि कोई मृत्यु के समय को जान ले तो अनशन द्वारा स्वर्गारोहण करता है / कार्तिक नामक श्रेष्ठी के समान उपासक कितनी ही बार प्रतिमा धारण कर सकता है / यद्यपि. नियमों की पूर्ति होने पर वह फिर गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हो सकता है किन्तु यह प्रथा प्रायः जनता में प्रशस्थ नहीं मानी जाती / अतः प्रतिमा-पालन के अनन्तर शेष जीवन धर्म-ध्यान ही में व्यतीत करना चाहिए / इस प्रकार श्री सुधा स्वामी जी श्री जम्बू स्वामी जी से कहते हैं :-“हे जम्बू स्वामिन् ! जिस प्रकार मैंने श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखार-विन्द से इस दशा का अर्थ श्रवण किया है उसी प्रकार तुमको सुना दिया है / इसमें अपनी बुद्धि से मैंने कुछ नहीं कहा / "