________________ षष्ठी दशा .. हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 235 पास मेघकुमारादि दीक्षा ग्रहण करने के लिए उपस्थित हुए तब उनसे श्री भगवान् ने प्रतिपादन किया “अहासुहं देवाणुप्पिया मा पडिबंधं करेह” हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हारे आत्मा को सुख हो, दीक्षादि धर्म-कृत्यों में प्रतिबन्ध (विलम्ब) न करो / किन्तु ऐसा नहीं कहा कि पहले तुम श्रमणोपासक की एकादश प्रतिमाओं को धारण करो / इत्यादि कथनों से भली भांति सिद्ध होता है कि ये प्रतिमाएं गृहस्थ-धर्म की पराकाष्ठा स्वरूप हैं / जो श्रावक दीक्षा ग्रहण करने में अपनी सामर्थ्य न समझें उनको प्रतिमाओं के द्वारा ही अपना जीवन सफल बनाना चाहिए / __यह शङ्का उपस्थित होती है कि कोई भी व्यक्ति आज कल उपर्युक्त ग्यारह प्रतिमाओं का नियम पूर्वकं पालन नहीं कर सकता / क्योंकि पहली प्रतिमा में एकान्तर तप है, दूसरी में दो, इसी क्रम से एकादश मास पर्यन्त एकादशं उपवासों का तप है / यदि यह असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य है ? उत्तर में कहा जाता है कि व्रतों का विधान सूत्रोक्त नहीं है, अतः अप्रामाणिक है / जैसे सूत्रों में अन्य नियमों का प्रतिपादन विस्तार से किया है, यदि व्रतों का भी नियम होता तो अवश्य उनका उसी प्रकार विधान होता / अतः सिद्ध हुआ कि सूत्रोक्त न होने से तप का विधान प्रामाणिक नहीं हैं / हाँ, यदि प्रतिमा धारी उपासक प्रतिमा के नियमों के अतिरिक्तं तप करना चाहे तो वह उसकी इच्छा पर निर्भर है / प्रतिमा को धारण कर उपासक को उसके नियमों के पालन करने में अवश्य प्रयत्न-शील होना चाहिए / .' इन एकादश प्रतिमाओं के नाम 'समवायाङ्गसूत्र' के एकादशवें समवाय में इस प्रकार दिये गये हैं : "एक्कारसं उवासग-पडिमाओ पण्णत्ताओ | तं जहा-दसण-सावए; कय-वय-कम्मे; सामाइअ-कडे; पोसहोववास-निरए; दिया बंभयारी; रत्ति-परिमाण-कडे; दिया वि राओ वि. बंभयारी; असिणाई; वियड-भोई; मोलि-कडे; सचित्त-परिण्णाए; आरंभ-परिणाए; पेस-परिणाए; उद्दिट्ठ-भत्त-परिण्णाए; समण-भूए आवि भवइ समणाउसो / " दर्शन-श्रावकः; कृत-व्रत-कर्मा; कृत-सामायिकः; पौषधोपवास–निरतः; दिवा ब्रह्मचारी, रात्रौ परिमाण-कृतः; दिवापि रात्रावपि ब्रह्मचारी, अस्नायी, दिवाभोजी, अबद्धपरिधान-कच्छकः; सचित्ताहार-परिज्ञातक; आरम्भ-परिज्ञातकः; प्रेष्य-परिज्ञातकः; उद्दिष्टभक्त-परिज्ञातकः; श्रमण-भूत-साधुकल्प इत्यर्थः / " देश व्रत वाले व्यक्ति को उतनी ही प्रतिमा धारण करनी चाहिएं जितनी वह धारण कर सके / - -