________________ 234 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् षष्ठी दशा की वासना में लिप्त रहना ही आर्त ध्यान की उत्पत्ति के कारण हैं / इच्छित पदार्थ के न मिलने पर त्रस और स्थावरों की हिंसा के भाव, मृषावाद के भाव और चोरी के भावों का बना रहना सदा दूसरों पर अधिकार जमाने की इच्छा का होना, दूसरों की उन्नति से जलना और उसमें रुकावट डालने का ध्यान करना ही रौद्र ध्यान की उत्पत्ति के कारण श्रमणोपासक को इन ध्यानों का परित्याग कर धर्म-ध्यान में ही अपना समय व्यतीत करना चाहिए, क्योंकि उसको अपनी आत्मा सांसारिक व्यवहारों से पृथक् करनी है / अतः वह उक्त ध्यानों से पृथक् रहकर और उपयोग-पूर्वक भिक्षा-वृत्ति करते हुए ग्यारहवीं प्रतिमा का पालन करे / इसकी अवधि जघन्य से एक दिन, दो दिन या तीन दिन है और उत्कर्ष से ग्यारह मास पर्यन्त है अर्थात् यदि ग्यारह महीने से पूर्व ही उक्त प्रतिमा-प्रतिपन्न श्रमणोपासक की मृत्यु हो जाय या वह दीक्षित हो जाय तो जघन्य या मध्यम काल ही उसकी अवधि होगी और यदि दोनों में से कुछ भी न हुआ तो उक्त अभिग्रह के साथ उसको ग्यारह मास तक इसका पालन करना पड़ेगा / इस प्रकार स्थविर भगवन्तों ने ग्यारह उपासक प्रतिमाएं प्रतिपादन की हैं / यहां पर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ग्यारह प्रतिमाओं के धारण करने के अनन्तर ही दीक्षित होना चाहिए या कोई इससे पहले भी हो सकता है ? उत्तर में कहा जाता है कि यदि इस प्रकार हो तो बहुत ही उत्तम है। क्योंकि जिस प्रकार जैनेतर मत में चार आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास या यति का विधान है उसी प्रकार जैन मत में भी है / किन्तु सामान्य रूप से कथन मिलता है “ततः प्रतिमाकरणमन्तरेणापि प्रव्रज्या सम्यग्भवति” अर्थात् प्रतिमा ग्रहण किये बिना भी प्रव्रज्या हो सकती है / किन्तु यह कथन अपवाद रूप ही है | श्री गौतम आदि गणधर और जम्बू कुमारादि महामुनि बिना प्रतिमा ग्रहण किये ही दीक्षित हुए थे / सामान्य रूप से यदि कोई प्रतिमा धारण करके दीक्षित होना चाहे तो भी हो सकता है, किन्तु यह नियम आवश्यकीय नहीं हैं / धर्म-कृत्यों के विषय में सूत्रकार लिखते हैं “समयं गोयम ! मा पमायए” अर्थात् धर्म-कृत्यों में किञ्चित्समय के लिए भी प्रमाद न करना चाहिए / हाँ, सूत्रों में ऐसा विधान कहीं नहीं मिलता कि प्रतिमा धारण के अनन्तर ही दीक्षित होना चाहिए, प्रत्युत ऐसे कथन मिलते हैं कि धार्मिक कृत्यों में विलम्ब कदापि नहीं करना चाहिए / जैसे जब श्रीभगवान् अरिष्टनेमि के पास गजसुकुमारादि और श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के